Book Title: Agam 25 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 141
________________ तीसरा उद्देशक] [187 कोई वस्तु चोरी चली जायेगी तो उसका स्वामी यह लांछन लगा सकता है कि यहां पर अमुक साधु या साध्वियां खड़े रहे थे / अतः वे ही मेरी अमुक वस्तु ले गये हैं, इत्यादि / इसके अतिरिक्त किसी गृहस्थ के विवादास्पद प्रश्न के उत्तर में वहां आक्षेप-व्याक्षेप में समय व्यतीत होगा। उससे उसके साथी साधू, जो कि एक मण्डली में बैठकर भोजन करते हैं, प्रतीक्षा करते रहेंगे, अतः उनके यथासमय भोजन न कर सकने से वह अन्तराय का भागी होगा। दूसरे, यदि वह किसी रोगी साधु से यह कहकर पाया है कि--"अाज मैं तुम्हारे लिए शीघ्र योग्य भक्त-पान लाऊंगा", फिर वाद-विवाद में पड़कर समय पर वापस नहीं पहुँच सकने से वह भूखप्यास से पीड़ित होकर और अधिक संताप को प्राप्त होगा, इत्यादि कारणों से गोचरी को गये हुए साधु और साध्वियों को कहीं भी अधिक वार्तालाप नहीं करना चाहिए अन्यथा वह चतुर्लघु से लेकर यथासम्भव अनेक प्रायश्चित्तों का पात्र होता है। __ अपवाद रूप में यह बताया गया है कि गोचरी को गये साधु या साध्वी से यदि कोई जिज्ञासु पूछे कि 'धर्म का लक्षण क्या है ?' तब वह "अहिंसा परमो धर्मः" इतना मात्र संक्षिप्त उत्तर देवे / यदि कोई पुनः पूछे कि धर्म की कुछ व्याख्या कीजिए, तब इतना मात्र कहे कि "अपने लिए जो तुम इष्ट या अनिष्ट मानते हो वह दूसरे के लिए भी वैसा ही समझो", बस इतना ही जैनशासन का सार है। यदि जिज्ञासु उक्त कथन की पुष्टि में कोई प्रमाण पूछे तो उक्त अर्थ-द्योतक एक गाथा कहे / यथा-- "सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाई पासो / पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ॥ -दशवै. अ. 4, गा. 9 वह भी खड़ा-खड़ा ही कहे, बैठकर नहीं। अन्यथा उपर्युक्त दोषों के कारण वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। गहस्थ के घर में मर्यादित धर्मकथा का विधान 23. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि, इमाई पंच महव्वयाई सभावणाई आइक्खित्तए वा, विभावित्तए वा, किट्टित्तए वा, पवेइत्तए वा। नन्नत्य एगनाएण वा जाव एगसिलोएण वा; से वि य ठिच्चा, नो चेव णं अठिच्चा। 23. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के घर में भावना सहित पांचों महाव्रतों का कथन, अर्थ-विस्तार या महाव्रताचरण के फल का कथन करना एवं विस्तृत विवेचन करना नहीं कल्पता है / किन्तु आवश्यक होने पर केवल एक उदाहरण यावत् एक श्लोक से कथन करना कल्पता है। वह भी खड़े रहकर किन्तु बैठकर नहीं। विवेचन-पूर्व सूत्र में किसी के द्वारा पूछे जाने पर वार्तालाप करने का विधि-निषेध किया गया है / प्रस्तुत सूत्र में महावतों के कथन का विधि-निषेध किया गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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