________________ 194] [बहत्कल्पसूत्र जाना चाहिये, अन्दर नहीं ठहरना चाहिये / अन्दर ठहरने पर राजाज्ञा एवं जिनाज्ञा का उल्लंघन होने से वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। अवग्रहक्षेत्र का प्रमाण 34. से गामंसि वा जाव सन्निवेसंसि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वानो समंता सक्कोसं जायेणं उग्गहं ओपिहिताणं चिट्ठित्तए। 34. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को ग्राम यावत् सन्निवेश में चारों ओर से एक कोस सहित एक योजना का अवग्रह ग्रहण करके रहना कल्पता है अर्थात् एक दिशा में ढाई कोस जाना-माना कल्पता है। विवेचन-उपाश्रय से किसी भी एक दिशा में भिक्षु को अढ़ाई कोस तक जाना-पाना कल्पता है, इससे अधिक क्षेत्र में जाना-माना नहीं कल्पता है। यद्यपि गोचरी के लिये भिक्षु को दो कोस तक ही जाना कल्पता है तथापि ढाई कोस कहने का आशय यह है कि दो कोस गोचरी के लिये गये हुए भिक्षु को वहां कभी मल-मूत्र की बाधा हो जाए तो बाधा निवारण के लिये वहां से वह आधा कोस और आगे जा सकता है / तब कुल अढ़ाई कोस एक दिशा में गमनागमन होता है। पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण यों दो-दो दिशाओं के क्षेत्र का योग करने पर पांच कोश अर्थात् सवा योजन का अवग्रहक्षेत्र होता है। उसे ही सूत्र में सकोस योजन अवग्रहक्षेत्र कहा है। सूत्र 1-2 तीसरे उद्देशक का सारांश साधु को साध्वी के उपाश्रय में और साध्वी को साधु के उपाश्रय में बैठना, सोना प्रादि प्रवृत्तियां नहीं करनी चाहिये। रोमरहित चर्मखण्ड आवश्यक होने पर साधु-साध्वी ग्रहण कर सकते हैं, किन्तु सरोमचर्म उन्हें नहीं कल्पता है / आगाढ़ परिस्थितिवश गृहस्थ के सदा उपयोग में आने वाला सरोमचर्म एक रात्रि के लिये साधु ग्रहण कर सकता है किन्तु साध्वी के लिये तो उसका सर्वथा निषेध है। बहुमूल्य वस्त्र एवं अखण्ड थान या आवश्यकता से अधिक लम्बा वस्त्र साधु-साध्वी को नहीं रखना चाहिये। गुप्तांग के निकट पहने जाने वाले लंगोट जांघिया आदि उपकरण साधु को नहीं रखना चाहिये किन्तु साध्वी को ये उपकरण रखना आवश्यक है। साध्वी को अपनी निश्रा से वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिये किन्तु अन्य प्रवर्तिनी प्रादि की निश्रा से वह वस्त्र की याचना कर सकती है। 7-10 11-12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org