________________ तोसरा उद्देशक] [195 सूत्र 14-15 दीक्षा लेते समय साधु-साध्वी को रजोहरण गोच्छग (प्रमार्जनिका) एवं आवश्यक पात्र ग्रहण करने चाहिये तथा मुहपत्ति चद्दर चोलपट्टक आदि के लिये भिक्षु अधिकतम तीन थान के माप जितने वस्त्र ले सकता है एवं साध्वी चार थान के माप जितने वस्त्र ले सकती है / 16-17 साधु-साध्वी को चातुर्मास में वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिये किन्तु हेमन्त ग्रीष्म ऋतु में वे वस्त्र ले सकते हैं। 18-19-20 स्वस्थ साधु-साध्वी को वस्त्र एवं शय्या-संस्तारक दीक्षापर्याय के अनुक्रम से ग्रहण करने चाहिये एवं वन्दना भी दीक्षापर्याय के क्रम से करनी चाहिये। 21-23 स्वस्थ साधु-साध्वी को गृहस्थ के घर में बैठना आदि सूत्रोक्त कार्य नहीं करने चाहिये तथा वहां अमर्यादित वार्तालाप या उपदेश भी नहीं देना चाहिये / आवश्यक हो तो खड़े-खड़े ही मर्यादित कथन किया जा सकता है। 24-26 शय्यातर एवं अन्य गृहस्थ के शय्या-संस्तारक को विहार करने के पूर्व अवश्य लौटा देना चाहिये तथा जिस अवस्था में ग्रहण किया हो, वैसा ही व्यवस्थित करके लौटाना चाहिये। शय्या-संस्तारक खो जाने पर उसकी खोज करना एवं न मिलने पर उसके स्वामी को खो जाने की सूचना देकर अन्य शय्या-संस्तारक ग्रहण करना। यदि खोज करने पर मिल जाए तो आवश्यकता न रहने पर लौटा देना चाहिये / 28-32 साधु-साध्वी उपाश्रय में, शून्य गृह में या मार्ग आदि में कहीं पर भी आज्ञा लेकर ठहरे हों और उनके विहार करने के पूर्व ही दूसरे साधु विहार करके आ जाएं तो वे उसी पूर्वगृहीत आज्ञा से वहां ठहर सकते हैं किन्तु नवीन आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती। __ यदि शून्य गृह का कोई स्वामी प्रकट हो जाए तो पुन: उसकी आज्ञा लेना आवश्यक होता है। ग्रामादि के बाहर सेना का पड़ाव हो तो भिक्षा के लिये साधु-साध्वी अन्दर जा सकते हैं, किन्तु उन्हें वहां रात्रिनिवास करना नहीं कल्पता है। रात्रिनिवास करने पर गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। साधु-साध्वी जिस उपाश्रय में ठहरे हों, वहां से किसी भी एक दिशा में अढ़ाई कोस तक गमनागमन कर सकते हैं, उससे अधिक नहीं। उपसंहार इस उद्देशक मेंसाधु-साध्वियों को एक-दूसरे के उपाश्रय में बैठने आदि के निषेध का, चर्म ग्रहण के कल्प्याकल्प्य का, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org