________________ 188] [बृहत्कल्पसूत्र साधु और साध्वियों को गृहस्थ के घर में पांचों महाव्रतों का उनकी भावनाओं के साथ आख्यान-मूल पाठ का उच्चारण, विभावन-अर्थ का प्रतिपादन, कीर्तन --लौकिक लाभों का वर्णन और प्रवेदन स्वर्ग-मोक्षादि पारलौकिक फल को प्रकट करना नहीं कल्पता है। भाष्यकार ने इसका कारण बताते हुए कहा है कि यदि साधु महाव्रतों का विस्तार से उपदेश करने लग जाए और उसे सुनने वाली गर्भिणी स्त्री जब तक वहां बैठी रहती है तब तक गर्भस्थ जीव के आहार-पान के निरोध से यदि कुछ अनिष्ट हो जाए तो वह उपदेष्टा उसकी हिंसा का भागी होता है। अथवा उसी समय कोई घर की स्त्री दीर्घशंका-निवारणार्थ चली जाए और उससे द्वेष रखने वाली उसको सौत या अन्य विद्वेषिणी स्त्री उसके बच्चे को मार कर साधु या साध्वी के सम्मुख लाकर पटक दे और चिल्लाने लगे कि इस साधु ने इसको मार डाला है। ऐसे अवसर पर लोगों को साधु के विषय में प्राणघात करने की आशंका हो सकती है। इसी प्रकार कभी किसी के पूछने पर साधु ने कहा हो कि उसे गृहस्थ के घर पर उपदेश देना नहीं कल्पता है, पीछे किसी के यहां उपदेश दे तो मृषावाद का भी दोष लगता है। साधु के उपदेश-काल में घर की दासी अवसर पाकर किसी आभूषणादि को चुरा ले जाए, पीछे साधु के चले जाने पर गृहस्वामी उस साधु पर चोरी का दोष लगा दे / ___ किसी स्त्री का पति विदेश गया हो और वह उपदेश सुनने के छल से कुछ देर साधु को ठहरा करके मैथुन-सेवन की प्रार्थना करे और साधु विचलित हो जाए अथवा वह स्त्री अच्छे वस्त्र-पात्रादि देने का प्रलोभन देकर साधु को प्रलोभित करे, इत्यादि कारणों से साधु के महाव्रतों में ही दोष लगता है। अतः सूत्र में गृहस्थ के घर पर पांचों महाव्रतों के आख्यान, विभावनादि विस्तृत प्रवचन का निषेध किया है। यदि कभी कोई रुग्ण-जिज्ञासु महाव्रतों के स्वरूप आदि के विषय में पूछे तो उसे विवेकपूर्वक एक गाथा से या एक श्लोक से अर्थात् संक्षिप्त रूप में कथन करे, वह भी खड़े रहकर ही करना चाहिए बैठकर नहीं। क्योंकि गोचरी गया हुआ भिक्षु खड़ा तो रहता ही है। वहां बैठना ही अनेक शंकाओं का स्थान होता है / अतः बैठने का सर्वथा निषेध किया गया है। गृहस्थ का शय्या-संस्तारक लौटाने का विधान 24. नो कप्पइ निरगंथाण वा निग्गंथोण वा पाडिहारियं सेज्जासंथारयं प्रायाए अपडिहट्ट संपवइत्तए। 24. प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक जो ग्रहण किया है उसे उसके स्वामी को सौंपे विना ग्रामान्तर गमन करना निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को नहीं कल्पता है / विवेचन-साधु के पूर्ण शरीर-प्रमाण पीठ-फलक-तृण आदि को 'शय्या' कहते हैं और अढाई हाथ प्रमाण वाले पीठ-फलक-तृण आदि को "संस्तारक" कहते हैं / जो शय्या-संस्तारक गृहस्थ के घर से वापस लौटाने को कहकर लाये जाते हैं, उन्हें "प्रातिहारिक" कहते हैं / साधु जब किसी ग्राम में पहुंचता है तो अपने योग्य शय्या-संस्तारक सागा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org