________________ 182] [बृहत्कल्पसूत्र करने वाला हो। अथवा जो मुख्य प्राचार्य की निश्रा में अनेक प्राचार्य होते हैं, उन्हें गणो कहा जाता है। 6. गणधर जो कुछ साधुओं का प्रमुख बनकर विचरण करता हो / 7. गणावच्छेदक-जो साधुजनों के भक्त-पान, स्थान, औषधोपचार, प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था करने वाला हो। उक्त सातों पदवीधारकों के क्रम का निरूपण करते हुए बताया गया है कि साध्वी को स्वयं की निश्रा से वस्त्र नहीं लेना चाहिए, किन्तु अपनी प्रवर्तिनी की निश्रा से लेना चाहिए। यदि वह न हो तो संघ के प्राचार्य की निश्रा से लेवे। उनके अभाव में उपाध्याय की निश्रा से लेवे। इस प्रकार पर्व-पर्व पदधारकों के अभाव में उत्तर-उत्तर पदधारकों की निश्रा से वस्त्र को लेवे। यदि उ पदधारकों में से कोई भी समीप न हो तो जो और कोई भी गीतार्थ साधु या साध्वी हो, उसको निश्रा से वस्त्र लेवे। किन्तु साध्वी को स्वयं की निश्रा से वस्त्र नहीं लेना चाहिए। दीक्षा के समय ग्रहण करने योग्य उपधि का विधान 14. निग्गंथस्स णं तप्पढमयाए संपन्वयमाणस्स कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए तिहि कसिणेहि बत्थेहि आयाए संपन्वइत्तए / से य पुवोवट्ठिए सिया, एवं से नो कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए तिहिं कसिहि वत्थेहिं आयाए संपन्यइत्तए / कप्पइ से अहापरिग्गहिएहि वत्यहिं आयाए संपन्वइत्तए। 15. निग्गंथोए य तप्पढमयाए संपन्वयमाणोए कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए चहि कसिणेहिं वत्थेहि आयाए संपव्वइत्तए / सा य पुचोवटिया सिया एवं से नो कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए चउहि कसिणेहि वत्थेहि आयाए संपव्वइत्तए / कप्पइ से अहापरिग्गहिएहि वत्थेहिं प्रायाए संपन्वइत्तए। 14. गहवास त्यागकर सर्वप्रथम प्रवजित होने वाले निर्ग्रन्थ को रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा तीन अखण्ड वस्त्र लेकर प्रव्रजित होना कल्पता है। यदि वह पहले दीक्षित हो चुका हो तो उसे रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा तीन प्रखण्ड वस्त्र लेकर प्रवजित होना नहीं कल्पता है।। किन्तु पूर्वगृहीत वस्त्रों को लेकर प्रवजित होना कल्पता है / 15. गहवास त्यागकर सर्वप्रथम प्रवजित होने वाली निर्ग्रन्थी को रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा चार अखण्ड वस्त्र लेकर प्रवजित होना कल्पता है। यदि वह पहले दीक्षित हो चुकी हो तो उसे रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा चार अखण्ड वस्त्र लेकर प्रवजित होना नहीं कल्पता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org