________________ दूसरा उद्देशक] [171 27. सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निढ़िए निसट्टे अपाडिहारिए, तं सागारिओ देइ, सागारियस्स परिजणो देइ, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए। 28. सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निट्ठिए, निसट्टे अपाडिहारिए, तं नो सागारिओ देइ, नो सागारियस्स परिजणो देइ, सागारियस्स पूया देइ, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए / 25. सागरिक ने अपने पूज्य पुरुषों को सम्मानार्थ भोजन दिया हो, पूज्य पुरुषों द्वारा वह आहार सागारिक के उपकरणों में बनाया गया हो और प्रातिहारिक हो, ऐसे आहार में से यदि सागारिक दे या उसके परिजन दें तो साधु को लेना नहीं कल्पता है। 26. सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषों को सम्मानार्थ भोजन दिया हो, पूज्य पुरुषों द्वारा वह आहार सागारिक के उपकरणों में बनाया गया हो और प्रातिहारिक हो, ऐसे आहार में से न सागारिक दे और न सागारिक के परिजन दें, किन्तु सागारिक के पूज्य पुरुष दें तो भी साधु को लेना नहीं कल्पता है। 27. सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषों को सम्मानार्थ भोजन दिया हो, पूज्य पुरुषों द्वारा वह आहार सागारिक के उपकरणों में बनाया गया हो और अप्रतिहारिक हो, ऐसे आहार में से सागारिक दे या उसके परिजन दें तो साधु को लेना नहीं कल्पता है। 28. सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषों को सम्मानार्थ भोजन दिया हो, पूज्य पुरुषों द्वारा वह आहार सागारिक के उपकरणों में बनवाया गया हो और अप्रतिहारिक हो, ऐसे आहार में से न सागारिक दे और न सागारिक के परिजन दें किन्तु सागारिक के पूज्य पुरुष दें तो लेना कल्पता है। विवेचन-शय्यातर के नाना, मामा, बहनोई, जमाई, विद्यागुरु, कलाचार्य, स्वामी या मेहमान आदि पूज्य जनो के निमित्त से जो भक्त-पान बनाया जाता है, उसे पूज्य-भक्त कहते हैं / वह शय्यातर के घर से लाकर जहां पूज्य जन ठहरे हों वहां उन्हें भोजनार्थ समर्पण किया गया हो, बाजार आदि से मंगाकर पूज्य जनों के पास भेंट रूप भेजा गया हो, शय्यातर के भाजनों में (बर्तनों में) पकाया गया हो, उसके पात्र से निकाला गया हो और प्रातिहारिक हो अर्थात् पूज्य जनों को खिलाने के पश्चात् जो भोजन बचे, वह वापस लाकर सोंपना, ऐसा कहकर सेवक या कुटुम्बीजन द्वारा भेजा गया हो, ऐसे सभी आहार पूज्य-भक्त कहे जाते हैं। इसी प्रकार सागारिक के पूज्य जनों के लिए बनाये गये या लाये गये वस्त्र-पात्र, कम्बलादि भी पूज्य उपकरण कहलाते हैं। ऐसे पूज्य जन-निमित्त वाले भक्त-पिण्ड और उपकरण को चाहे शय्यातर स्वयं साधु के लिए दे, उसके स्वजन-परिजन दें या उक्त पूज्य जन दें तो भी साधु-साध्वी को वह आहार आदि लेना नहीं कल्पता है / क्योंकि शेष आहार पुनः शय्यातर को लौटाने का होने से उसमें शय्यातर के स्वामित्व का सम्बन्ध रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org