________________ में हरा है।१८ उसके पश्चात् विशेषावश्यकभाष्य और निशीथभाष्य' मादि में भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है। तात्पर्य यह है कि हम अावश्यकनियुक्ति को यदि ज्योतिर्विद वराहमिहिर के भ्राता द्वितीय भद्रबाह की कृति मानते हैं तो वे विक्रम की छठी शताब्दी में हुए हैं। उन्होंने इसका प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि "छेदसुत्त" शब्द का प्रयोग "मूलसुत्त" से पहले हुआ है। अमुक प्रागमों को "छेदसूत्र" यह अभिधा क्यों दी गई ? इस प्रश्न का उत्तर प्राचीन ग्रन्थों में सीधा और स्पष्ट प्राप्त नहीं है। हाँ यह स्पष्ट है कि जिन सूत्रों को "छेदसुत्त" कहा गया है वे प्रायश्चित्तसूत्र हैं। स्थानाङ्ग में श्रमणों के लिए पांच चारित्रों का उल्लेख है (1) सामायिक, (2) छेदोपस्थापनीय, (3) परिहारविशुद्धि, (4) सूक्ष्मसंपराय, (5) ययाख्यात / 22 इनमें से वर्तमान में तीन अन्तिम चारित्र विच्छिन्न हो गये हैं। सामायिक चारित्र स्वल्पकालीन होता है, छेदोपस्थापनिक चारित्र ही जीवन पर्यन्त रहता है। प्रायश्चित्त का सम्बन्ध भी इसी चारित्र से है। संभवत: इसी चारित्र को लक्ष्य में रखकर प्रायश्चित्तसूत्रों को छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो। मलयगिरि की आवश्यकवृत्ति 23 में छेदसूत्रों के लिए पद-विभाग, समाचारी शब्द का प्रयोग हमा है। पद-विभाग और छेद ये दोनों शब्द रखे गये हों। क्योंकि छेदसूत्रों में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध नहीं है। सभी सूत्र स्वतंत्र हैं। उनकी व्याख्या भी छेद-दष्टि से या विभाग-दष्टि से की जाती है। दशाश्रुतस्कन्ध, निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प ये सूत्र नौवें प्रत्याख्यान पूर्व से उद्धृत किये गये हैं,२४ उससे छिन्न अर्थात् पृथक् करने से उन्हें छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो, यह भी सम्भव है / 25 छेदसूत्रों को उत्तम श्रुत माना गया है। भाष्यकार भी इस कथन का समर्थन करते हैं।२६ चणिकार जिनदास महत्तर स्वयं यह प्रश्न उपस्थित करते हैं कि छेदसूत्र उत्तम क्यों हैं ? फिर स्वयं ही उसका समाधान देते किदसत्र में प्रायश्चित्तविधि का निरूपण है, उससे चारित्र की विशुद्धि होती है, एतदर्थ यह श्रत उत्तम माना 18. जं च महाकप्पसुयं, जाणि असेसाणि छेअसुत्ताणि / चरणकरणाणुप्रोगो ति कालियत्थे उवमयाणि / / -आवश्यकनियुक्ति 777 ---विशेषावश्यकभाष्य 2265 20. (क) छेदसुत्तणिसीहादी, अत्यो य गतो य छेदसुत्तादी / मंतनिमित्तोसहिपाहूडे, य गाति अण्णात्थ / / ----निशीथभाप्य 5947 (ख) केनोनिकल लिटरेचर पृ. 36 भी देखिए। 21. जैनागमधर और प्राकृत वाङ्मय -लेखक पुण्यविजयजी, —-मुनि हजारीमल स्मृतिग्रन्थ, पृ. 718 22. (क) स्थानांगसूत्र 5, उद्देशक 2, सूत्र 428 (ख) विशेषावश्यकभाष्य गा. 1260-1270 23. पदविभाग, समाचारी छेदसूत्राणि / -आवश्यकनियुक्ति 665, मलयगिरिवृत्ति 24. कतरं सुत्तं ? दसाउकप्पो वबहारो य / कतरातो उद्धृतं ? उच्यते पच्चक्खाण-पुठवाओ। -दशाश्रुतस्कंघचूणि, पत्र 2 25. निशीध 19 / 17 26. छेयसुयमुत्तमसुयं / -निशीथभाष्य, 6148 [40] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org