________________ श्रमण एक मास पर्यन्त अपने शरीर के ममत्व को त्याग कर देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है और शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की, द्वितीया को दो दत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ग्रहण करता है। इस प्रकार क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को 15 दत्ति आहार की और 15 दत्ति पानी की ग्रहण करता है। कृष्णपक्ष में क्रमश: एक दत्ति कम करता जाता है और अमावस्या के दिन उपवास करता है। इसे यवमध्यचन्द्रप्रतिमा कहते हैं। वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 15 दत्ति पाहार की और 15 दति पानी की ग्रहण की जाती है। उसे प्रतिदिन कम करते हुए यावत् अमावस्या को एक दत्ति प्राहार की और एक दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है / शुक्लपक्ष में क्रमश: एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा को उपवास किया जाता है / इस प्रकार 30 दिन की प्रत्येक प्रतिमा के प्रारम्भ के 29 दिन दत्ति के अनुसार पाहार और अन्तिम दिन उपवास किया जाता है। व्यवहार के आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार, ये पांच प्रकार हैं। इनमें पागम का स्थान प्रथम है और फिर क्रमशः इनकी चर्चा विस्तार से भाष्य में है। स्थविर के जातिस्थविर, सूत्रस्थविर और प्रव्रज्यास्थविर, ये तीन भेद हैं। 60 वर्ष की आयु वाला श्रमण जातिस्थविर या वयःस्थविर कहलाता है। ठाणांग, समवायांग का ज्ञाता सूत्रस्थविर और दीक्षा धारण करने के 20 वर्ष पश्चात की दीक्षा वाले निर्ग्रन्थ प्रव्रज्यास्थविर कहलाते हैं। शैक्ष भूमियां तीन प्रकार की हैं-सप्त-रात्रिदिनी चातुर्मासिकी और षण्मासिकी। आठ वर्ष से कम उम्र वाले बालक-बालिकाओं को दीक्षा देना नहीं कल्पता। जिनकी उम्र लघु है वे प्राचारांगसूत्र के पढ़ने के अधिकारी नहीं हैं। कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले साधु को आचारांग पढ़ाना कल्प्य है / चार वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को सूत्रकृतांग, पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार, आठ वर्ष की दीक्षा वाले को स्थानांग और समवायांग, दस वर्ष की दीक्षा वाले को व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ग्यारह वर्ष की दीक्षा वाले को लघुविमान-प्रविभक्ति, महाविमानप्रविभक्ति, अंगचूलिका, बंगलिका और विवाह-चूलिका, बारह वर्ष की दीक्षा वाले को अणोरुपपातिक, गरुलोपपातिक, धरणोपपातिक, वैश्रमणोपपातिक और वैलंधरोपपातिक, तेरह वर्ष की दीक्षा वाले को उपस्थानश्रुत, देवेन्द्रोपपात और नागपरियापनिका (नागपरियावणिग्रा), चौदह वर्ष की दीक्षा वाले को स्वप्नभावना, पन्द्रह वर्ष की दीक्षा वाले को चारणभावना, सोलह यर्ष की दीक्षा वाले को वेदनीशतक, सत्रह वर्ष की दीक्षा वाले को पाशीविषभावना, अठारह वर्ष की दीक्षा वाले को दृष्टिविधभावना, उन्नीस वर्ष की दीक्षा वाले वाले को दृष्टिवाद और बीस वर्ष की दीक्षा वाले को सब प्रकार के शास्त्र पढ़ाना कल्प्य है। वैयावृत्य (सेवा) दस प्रकार की कही गई है--१. आचार्य की वैयावृत्य, 2. उपाध्याय की वैयावृत्य, उसी प्रकार, 3. स्थविर की, 4. तपस्वी की, 5. शैक्ष-छात्र की, 6. ग्लान-रुग्ण की, 7. सामिक की, 8. कल की. 9. गण की और 10. संघ की वैयावृत्य / उपर्युक्त दस प्रकार की वयावृत्य से महानिर्जरा होती है। उपसंहार इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र की अनेक विशेषताएं हैं। इसमें स्वाध्याय पर विशेष रूप से बल दिया गया है। [ 59 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org