________________ प्रथम उद्देशक] 155 इस सूत्र से एवं प्राचारांगसूत्र से यह निर्णय हो जाता है कि संयमोन्नति का मुख्य लक्ष्य रखते हुए एवं अपनी क्षमता का ध्यान रखते हुए किसी भी क्षेत्र में विचरण किया जा सकता है, किन्तु सामान्यतया आर्यक्षेत्र से बाहर विचरण करने का निषेध ही समझना चाहिए। __ सूत्र में प्रार्यक्षेत्र के चारों दिशाओं के किनारे पर आए देशों के नाम कहे गए हैं, किन्तु दक्षिण दिशा में कच्छ देश न कहकर वहां की प्रसिद्ध नगरी 'कोसम्बी' का कथन किया गया है / थूणा देश का नाम एवं उसकी मुख्य नगरी का नाम उपर्युक्त पच्चीस प्रार्यक्षेत्रों में नहीं है, इसका कारण नामों की अनेकता या भिन्नता होना ही है। प्रथम उद्देशक का सारांश वनस्पति के मूल से लेकर बीज पर्यन्त दस विभागों में जितने खाने योग्य विभाग हैं वे अचित्त होने पर ग्रहण किये जा सकते हैं, किन्तु साध्वी कन्द, मूल, फल आदि के प्रविधि से किए गए बड़े-बड़े टुकड़े अचित्त होने पर भी ग्रहण नहीं कर सकती है। ग्राम, नगर आदि में एक मास रहना कल्पता है। यदि उसके उपनगर आदि हों तो उनमें अलग-अलग अनेक मासकल्प तक ठहरा जा सकता है, किन्तु जहां रहे वहीं भिक्षा के लिये भ्रमण करना चाहिए, अन्य उपनगरों में नहीं। 10-11 एक परिक्षेप एवं एक गमनागमन के मार्ग वाले प्रामादि में साधु-साध्वी को एक काल में नहीं रहना चाहिए, किन्तु उसमें अनेक मार्ग या द्वार हों तो वे एक काल में भी रह सकते हैं। 12-13 पुरुषों के अत्यधिक गमनागमन वाले तिराहे, चौराहे या बाजार आदि में बने हुए उपाश्रयों में साध्वियों को नहीं रहना चाहिए, किन्तु साघु उन उपाश्रयों में ठहर सकते हैं। 14-15 द्वार-रहित स्थान में साध्वियों को नहीं ठहरना चाहिए, परिस्थितिवश यदि ठहरना पड़े तो पर्दा लगाकर द्वार को बन्द कर लेना चाहिए। किन्तु ऐसे स्थानों पर भिक्षु ठहर सकते हैं। 16-17 सुराही के आकार का प्रश्रवण-मात्रक साध्वी रख सकती है, किन्तु साधु नहीं रख सकता है। साधु-साध्वी को वस्त्र की चिलमिलिका (मच्छरदानी) रखना कल्पता है। पानी के किनारे साधु-साध्वी को बैठना आदि क्रियाएं नहीं करनी चाहिए। 20-21 चित्रों से युक्त मकान में नहीं ठहरना चाहिए। साध्वियों को शय्यातर के संरक्षण में ही ठहरना चाहिए, किन्तु भिक्षु बिना संरक्षण के भी ठहर सकता है। 22-24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org