________________ 154] [बृहत्कल्पसूत्र विवेचन-इस भरतक्षेत्र के साढे पच्चीस प्रार्यदेश प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में बताये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं 1. मगध, 2. अंग, 3. बंग, 4. कलिंग, 5. काशी, 6. कौशल, 7. कुरु, 8. सौर्य, 9. पांचाल, 10. जांगल, 11. सौराष्ट्र, 12. विदेह, 13. वत्स, 14. संडिब्भ, 15. मलय, 16. वच्छ, 17. अच्छ, 18. दशार्ण, 19. चेदि, 20. सिन्धु-सौवीर, 21. सूरसेन, 22. भृग 23. कुणाल, 24. कोटिवर्ष, 25. लाढ और केकय अर्ध / प्रकृत सूत्र में इनकी सीमा रूप से, पूर्व दिशा में- अंगदेश (जिसकी राजधानी चम्पा नगरी रही है) से मगधदेश (जिसकी राजधानी राजगृह रही है) तक। दक्षिण दिशा में वत्सदेश (जिसकी राजधानी कोशाम्बी रही है) तक / पश्चिम दिशा मेंस्थूणादेश तक। उत्तर दिशा में कुणाल देश (जिसकी राजधानी श्रावस्ती नगरी रही है) तक जाने का विधान साधु-साध्वियों के लिए किया गया है / इसका कारण यह बतलाया गया है कि इन चारों दिशाओं की सीमा के भीतर ही तीर्थंकरों के जन्म निष्क्रमण आदि की महिमा होती है, यहीं पर केवलज्ञान दर्शन को उत्पन्न करने वाले सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकरादि महापुरुष धर्म का उपदेश देते हैं, यहीं पर भव्यजीव प्रतिबोध को प्राप्त होते हैं और यहीं पर जिनवरों से धर्मश्रवण कर अपना संशय दूर करते हैं। इसके अतिरिक्त यहां पर साधु-साध्वियों को भक्त-पान एवं उपधि सुलभता से प्राप्त होती है और यहां के श्रावक जन या अन्य लोग साधु-साध्वियों के प्राचार-विचार के ज्ञाता होते हैं / अत: उन्हें इन पार्यक्षेत्रों में ही विहार करना चाहिए। सूत्र में निश्चित शब्दों में कहा गया है कि 'इतना ही आर्य क्षेत्र है और इतना ही विचरना कल्पता है, इनके बाहर विचरना नहीं कल्पता है।' इसका तात्पर्य यह है कि यह शाश्वत पार्यक्षेत्र है / ___ कदाचित् कोई राजा आदि की सत् प्रेरणा से अनार्यक्षेत्र का जनसमुदाय आर्य स्वभाव में परिणत हो भी जाए तो अल्पकालीन परिवर्तन आ सकता है। उसी तरह आर्यक्षेत्र में भी अल्पकालीन परिवर्तन होकर जनसमदाय अनार्य स्वभाव में परिणत हो सकता है, इसी कारण से अन्तिम सत्रांश में यह कहा गया है कि-'क्षेत्रमर्यादा एवं कल्पमर्यादा इस प्रकार से होते हुए भी जब जहां विचरण करने से संयम गुणों का विकास हो वहीं विचरण करना चाहिए।' क्योंकि कभी अनार्यक्षेत्र में किसी के संयमगुणों की वृद्धि एवं जिनशासन को प्रभावना हो सकती है और कभी कहीं प्रार्यक्षेत्र में भी संयमगुणों की हानि हो सकती है। इसलिए सूत्र में क्षेत्रसीमा का कथन करके संयमवद्धि का लक्ष्य रखकर विचरने का विशेष विधान किया है। भाष्य और टीका में बताया गया है कि संप्रति राजा की प्रेरणा एवं प्रयत्नों से अनार्यक्षेत्र में भी साधु-साध्वी विचरने लगे थे। आर्यक्षेत्र में भी जहां लम्बे मार्ग हों, लम्बी अटवी हो, जिनको पार करने में अनेक दिन लगते हों तो उन क्षेत्रों में विचरण करने का आचा. श्रु. 2, अ. 3 में निषेध किया गया है और उनमें विचरण करने से होने वाले दोषों का स्पष्टीकरण भी किया है, अतः प्रार्यक्षेत्र के भी ऐसे विभागों में साधुसाध्वी को नहीं जाना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org