________________ मार्ग से नहीं जाना चाहिए। जो निर्ग्रन्थी विक्षिप्तचित्त हो गई है उसके कारणों को समझकर उसके देख-रेख की व्यवस्था और चिकित्सा ग्रादि के विधि-निषेधों का विवेचन किया गया है / श्रमणों के लिए छह प्रकार के परिमन्यु व्याधात माने गये हैं—(१) कौत्कुचित (2) मौखरिक (3) चक्षुलोल (4) तितिणिक (5) इच्छालोम (6) भिज्जानिदानकरण-इनका स्वरूप, दोष और अपवाद आदि पर चिन्तन किया है। ___ कल्पस्थिति प्रकृत में छह प्रकार की कल्पस्थितियों पर विचार किया है-(१) सामायिककल्पस्थिति, (2) छेदोपस्थानीयकल्पस्थिति, (3) निविशमानकल्पस्थिति, (4) निविष्टकायिककल्पस्थिति, (5) जिनकल्पस्थिति, (6) स्थविरकल्पस्थिति | छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति के आचेलक्य, प्रौद्देशिक प्रादि दस कल्प हैं। उसके अधिकारी और अनधिकारी पर भी चिन्तन किया गया है। प्रस्तुत भाष्य में यत्र-तत्र सुभाषित बिखरे पड़े हैं, यथा--हे मानवो ! सदा-सर्वदा जाग्रत रहो, जाग्रत मानव की बुद्धि का विकास होता है, जो जागता है वह सदा धन्य है। "जागरह नरा णिचं, जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धि / सो सुवति // सो धणं, जो जग्गति सो सया धण्णो // शील और लज्जा ही नारी का भूषण है। हार आदि प्राभूषणों से नारी का शरीर विभूषित नहीं हो सकता। उसका भूषण तो शील और लज्जा ही है। सभा में संस्कार रहित असाधूवादिनी वाणी प्रशस्त नहीं कही जा सकती। इस प्रकार प्रस्तुत भाष्य में श्रमणों के प्राचार-विचार का तार्किक दृष्टि से बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। उस युग की सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक राजनीतिक स्थितियों पर भी खासा अच्छा प्रकाश पड़ता है। अनेक स्थलों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सुन्दर विश्लेषण हुआ है। जैन साहित्य के इतिहास में ही नहीं, अपितु भारतीय साहित्य में इस' ग्रन्थरत्न का अपूर्व और अनूठा स्थान है। बृहत्कल्पचूणि इस चूणि का प्राधार मूलसूत्र व लघुभाष्य है / दशाश्रुतस्कन्धचूणि का और बृहत्कल्पचूर्णि का प्रारम्भिक अंश प्रायः मिलता-जुलता है। भाषाविज्ञों का मन्तव्य है कि बृहत्कल्पचणि से दशाश्रु तस्कन्धणि प्राचीन है। यह सम्भव है कि ये दोनों ही चणियां एक ही आचार्य की हों। प्रस्तुतः चूणि में पीठिका और छह उद्देशक है / प्रारम्भ में ज्ञान के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है / अभिधान और अभिधेय को कथंचित भिन्न और कथंचित् अभिन्न बताते हुए वक्ष शब्द के छह भाषाओं में पर्याय दिये हैं। जिसे संस्कृत में वृक्ष कहते हैं वही प्राकृत में रुक्क्ष, मगध में प्रोदण, लाट में कर, दमिल-तमिल में चोर और आन्ध्र में इडाकु कहा जाता है। चणि में तत्त्वार्थाधिगम, विशेषावश्यकभाष्य, कर्मप्रकृति, महाकल्प, गोविन्दनियंक्ति आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। भाषा संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। चणि में प्रारम्भ से अन्त तक लेखक के नाम का निर्देश नहीं हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org