________________ प्रथम उद्देशक] [145 इस प्रकार के वैराज्य और विरुद्ध राज्य में साधु-साध्वियों को विचरने का एवं कार्यवशात् जाने-आने का निषेध किया है, क्योंकि ऐसे राज्यों में जल्दी-जल्दी आने-जाने से अधिकारी लोग साधु को चोर, गुप्तचर या षड्यन्त्रकारी जानकर वध, बन्धन आदि नाना प्रकार के दुःख दे सकते हैं / अतः ऐसे 'वैराज्य' और 'विरुद्धराज्य' में गमनागमन करने वाला साधु राजा की मर्यादा का उल्लंघन तो करता ही है, साथ ही वह जिनेश्वर की प्राज्ञा का भी उल्लंघन करता है और इसी कारण वह चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है। नियुक्तिकार सूत्र के 'गमन', 'पागमन' और 'गमनागमन' इन अंशों की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि विशेष कारणों से उक्त प्रकार के 'वैराज्य' 'विरुद्ध राज्य' में जाना-माना भी पड़े तो पहले सीमावर्ती 'पारक्षक' से पूछे कि हम अमुक कार्य से आपके राज्य के भीतर जाना चाहते हैं, अतः जाने की स्वीकृति दीजिए। यदि वह स्वीकृति देने में अपनी असमर्थता बतलावे तो उस राज्य के नगर-सेठ के पास संदेश भेजकर स्वीकृति मंगावे / उसके भी असमर्थता प्रकट करने पर सेनापति से, उसके भी असामर्थ्य प्रकट करने पर मंत्री से, उसके भी असामर्थ्य बताने पर राजा के पास संदेश भेजे कि-"हम अमुक कारण-विशेष से आपके राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं, अत: जाने की स्वीकृति दीजिए और 'प्रारक्षक जनों को आज्ञा दीजिए कि वे हमें राज्य में प्रवेश करने दें।" इसी प्रकार पाते समय भी उक्त क्रम से ही स्वीकृति लेकर वापस पाना चाहिए / नियुक्तिकार ने गमनागमन के विशेष कारण इस प्रकार बताये हैं 1. यदि किसी साधु के माता-पिता दीक्षा के लिए उद्यत हों तो उनको दीक्षा देने के लिए। 2. यदि शोक से विह्वल हों तो उनको सान्त्वना देने के लिए। 3. भक्तपान प्रत्याख्यान (समाधिमरण) का इच्छुक साधु अपने गुरु या गीतार्थ के पास आलोचना के लिए। 4. रोगी साधु की वैयावृत्य के लिए, 5. अपने पर क्रुद्ध साधु को उपशान्त करने के लिए, 6. वादियों द्वारा शास्त्रार्थ के लिए आह्वान करने पर शासन-प्रभावना के लिए, 7. प्राचार्य का अपहरण कर लिए जाने पर उनको मुक्त कराने के लिए तथा इसी प्रकार के अन्य कारण उपस्थित होने पर उक्त प्रकार से स्वीकृति लेकर साधु 'वैराज्य' एवं 'विरुद्धराज्य' में जा आ सकते हैं। सूत्र में "सज्ज" शब्द के द्वारा जो शीघ्र-शीघ्र जाने का निषेध किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि पुनः-पुनः इस प्रकार प्राज्ञा लेकर जाने पर राजा या राजकर्मचारी रुष्ट या शंकित हो सकते हैं / क्योंकि आवश्यक कार्य से एक-दो बार जाना तो क्षम्य हो सकता है किन्तु बारम्बार जाना आपत्तिजनक होता है। ऐसे समय में अनेक कार्य करने आवश्यक हों तो पूर्ण विचार कर एक ही बार में उन सभी कार्यों को सम्पन्न कर लेने का विवेक रखना चाहिये और सम्भव हो तो उस दिशा, राज्य या राजधानी में जाना ही नहीं चाहिये, यही उत्सर्गमार्ग है। अपवाद से जाना पड़े तो बारम्बार नहीं जाना चाहिये, यह इस सूत्र का तात्पर्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org