________________ प्रथम उद्देशक] [143 ___ भाष्यकार ने कलह उत्पत्ति के कुछ निमित्तकारण इस प्रकार बताये हैं 1. शिष्यों के लिये, 2. उपकरणों के लिये, 3. कटु वचन के उच्चारण से, 4. भूल सुधारने को प्रेरणा करने के निमित्त से, 5. परस्पर संयमनिरपेक्ष चर्चा-वार्ता एवं विकथाओं के निमित्त से, 6. श्रद्धासम्पन्न विशिष्ट स्थापना कुलों में गोचरी करने या नहीं करने के निमित्त से / कलह उत्पन्न होने के बाद भी संयमशील मुनि के संज्वलन कषाय के कारण अशान्त अवस्था अधिक समय नहीं रहती है। वह सम्भल कर आलोचना प्रायश्चित्त कर शुद्ध हो जाता है / किन्तु प्रस्तुत सूत्र में एक विशिष्ट सम्भावना बताकर उसका समाधान किया गया है किकभी कोई भिक्षु तीव्र कषायोदय में आकर स्वेच्छावश उपशान्त न होना चाहे तब दूसरे उपशान्त होने वाले भिक्षु को यह सोचना चाहिये कि क्षमापणा, शान्ति, उपशान्ति आत्मनिर्भर है, परवश नहीं। यदि योग्य उपाय करने पर भी दूसरा उपशान्त न हो और व्यवहार में शान्ति भी न लावे तो उसके किसी भी प्रकार के व्यवहार से पुनः प्रशान्त नहीं होना चाहिये। क्योंकि स्वयं के पूर्ण उपशान्त एवं कषायरहित हो जाने से स्वयं की आराधना हो सकती है और दूसरे के अनुपशान्त रहने पर उसकी ही विराधना होती है, दोनों की नहीं। अतः भिक्षु के लिए यही जिनाज्ञा है कि वह स्वयं पूर्ण उपशान्त हो जाए। इस विषय में प्रश्न उपस्थित किया गया है कि यदि अन्य भिक्षु उपशान्त न होवे और उक्त व्यवहार भी शुद्ध न करे तो अकेले को उपशान्त होना क्यों आवश्यक है ? इसके उत्तर में समझाया गया है कि कषायों को उपशान्ति करना यही संयम का मुख्य लक्ष्य है। इससे ही वीतरागभाव की प्राप्ति हो सकती है / प्रत्येक स्थिति में शान्त रहना यही संयमधारण करने का एवं पालन करने का सार है / अतः अपने संयम की धाराधना के लिये स्वयं को सर्वथा उपशांत होना अत्यंत आवश्यक समझना चाहिए। विहार सम्बन्धी विधि-निषेध 35. नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथोण वा वासावासासु चारए / 36. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंयोण वा हेमन्त-गिम्हास चारए। 35. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को वर्षावास में विहार करना नहीं कल्पता है / 36. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में विहार करना कल्पता है / विवेचन-वर्षाकाल में पानी बरसने से भूमि सर्वत्र हरित तृणांकुरादि से व्याप्त हो जाती है / घास में रहने वाले छोटे जन्तु एवं भूमि में रहनेवाले केंचुआ, गिजाई आदि जीवों से एवं अन्य भी छोटे-बड़े त्रसजीवों से पृथ्वी व्याप्त हो जाती है, अतः सावधानीपूर्वक विहार करने पर भी उनकी विराधना सम्भव है / इसके अतिरिक्त पानी के बरसने से मार्ग में पड़ने वाले नदी-नाले भी जल-पूर से प्रवाहित रहते हैं, अत: साधु-साध्वियों को उनके पार करने में बाधा हो सकती है। विहारकाल में पानी बरसने से उनके वस्त्र एवं अन्य उपधि के भीगने की भी सम्भावना रहती है, जिससे अप्काय की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org