________________ 140] [बुहत्कल्पसूत्र कामाभिलाषा प्रकट करने पर कुशीलसेवन के दोष बताकर कहे कि-"हम संयमी हैं, ऐसा पापाचरण करके अपने संयम का नाश नहीं करना चाहते हैं।" ऐसा कहने पर वह क्षुब्ध होकर साधु की अपकीति भी कर सकती है, अपनी दी गई वस्तु वापस भी मांग सकती है और इसी प्रकार के अन्य अनेक उपद्रव भी कर सकती है / इन सब कारणों से साधु को उक्त तीन प्रश्न पूछकर और दिये जाने वाले वस्त्र-पात्रादि के पूर्ण शुद्ध ज्ञात होने पर तथा दातार के विशुद्ध भावों को यथार्थ जानकर ही आगार के साथ लेना उचित है, अन्यथा नहीं। साध्वी को भी इसी विधि का पालन करना चाहिए किन्तु यहां इतना विशेष ज्ञातव्य है कि प्रवर्तिनी उस साध्वी के द्वारा लाये गये वस्त्रादि को सात दिन तक अपने पास रखती है और उसकी यतना से परीक्षा करती है कि-"यह विद्या, संमोहन-चूर्ण, मन्त्र आदि से तो मन्त्रित नहीं है ?" यदि उसे वह निर्दोष प्रतीत हो तो वह लाने वाली साध्वी को या उसे आवश्यकता न होने पर अन्य साध्वी को दे देती है / वह यह भी देखती है कि देने वाला व्यक्ति युवा, विधुर, व्यभिचारी या दुराचारी तो नहीं है और जिसे दिया गया है, वह युवती और नवदीक्षिता तो नहीं है। यदि इनमें से कोई भी कारण दृष्टिगोचर हो तो प्रवर्तिनी उसे वापस करा देती है / यदि ऐसा कोई कारण नहीं हो तो उसे अन्य साध्वी को दे देती है। इतनी परीक्षा का कारण नियुक्तिकार ने यह बताया है कि-"स्त्रियां प्रकृति से ही अल्पधैर्यवाली होती हैं और दूसरे के प्रलोभन से शीघ्र लुब्ध हो जाती हैं।" यद्यपि सूत्र में साध्वी को श्रावक से “साकारकृत" वस्त्रादि लेने का विधान है, पर भाष्यकार ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि-"उत्सर्गमार्ग तो यही है कि साध्वी किसी भी गृहस्थ से स्वयं वस्त्रादि नहीं ले / जब भी उसे वस्त्रादि की आवश्यकता हो, वह अपनी प्रवर्तिनी से कहे अथवा गणधर या प्राचार्य से कहे / आचार्य गृहस्थ के यहां से वस्त्र लावे और सात दिन तक अपने पास रखे। तत्पश्चात् उसे धोकर किसी साधु को प्रोढ़ावे / इस प्रकार परीक्षा करने पर यदि वह निर्दोष ज्ञात हो तो प्रवर्तिनी को दे और वह उसे लेकर उस साध्वी को दे जिसे उसकी आवश्यकता है। यदि कदाचित् गणधर या प्राचार्य समीप न हों तो प्रवर्तिनी गृहस्थ के यहां से वस्त्र लावे और उक्त विधि से परीक्षा कर साध्वी को देवे / यदि कदाचित् गोचरी, विचारभूमि या विहारभूमि को जाते पाते समय कोई गृहस्थ वस्त्र लेने के लिए निमंत्रित करे और साध्वी को वस्त्र लेना आवश्यक ही हो तो, उसे 'साकारकृत' लेकर प्रवर्तिनी को लाकर देना चाहिए और वह परीक्षा करके उस साध्वी को देवे। यह विधि अपरिचित या अल्पपरिचित दाता की अपेक्षा से समझनी चाहिए। सुपरिचित एवं विश्वस्त श्रावक-श्राविका से वस्त्रादि ग्रहण करने में सूत्रोक्त विधि ही पर्याप्त होती है। भाष्योक्त विधि उसके लिये आवश्यक नहीं है ऐसा समझना चाहिए / रात्रि में आहारादि की गवेषणा का निषेध एवं अपवाद विधान 42. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्तए। नऽन्नत्थ एगेणं पुन्वपडिलेहिएणं सेज्जासंथारएणं / 43. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा चियाले वा वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कम्बलं वा, पायपुछणं वा पडिगाहेत्तए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org