________________ श्रुतसम्पदा के बहुश्रुतता, परिचितश्रुतता, विचित्रश्रुतता, घोषविशुद्धिकारकता-ये चार प्रकार हैं। शरीरसम्पदा के शरीर की लम्बाई व चौड़ाई का सम्यक अनुपात, अलज्जास्पद शरीर, स्थिर संगठन, प्रतिपूर्ण इन्द्रियता---ये चार भेद हैं। वचनसम्पदा के प्रादेयवचन- ग्रहण करने योग्य वाणी, मधुर वचन, अनिश्रित- प्रतिबन्धरहित, असंदिग्ध वचन-ये चार प्रकार हैं। वाचनासम्पदा के विचारपूर्वक वाच्यविषय का उद्देश्य निर्देश करना, विचारपूर्वक वाचन करना, उपयुक्त विषय का ही विवेचन करना, अर्थ का सुनिश्चित रूप से निरूपण करता-ये चार भेद हैं। मतिसम्पदा के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार प्रकार हैं / अवग्रह मतिसम्पदा के क्षिप्रग्रहण, बहुग्रहण, बहुविधग्रहण, ध्र वग्रहण, अनिश्रितग्रहण और असंदिग्धग्रहणये छह भेद हैं। इसी प्रकार ईहा और अवाय के भी छह-छह प्रकार हैं / धारणा मतिसम्पदा के बहुधारण, बहुबिधधारण, पुरातनधारण, दुर्द्धरधारण, अनिधितधारण और असंदिग्धधारण-....ये छह प्रकार हैं। प्रयोगमतिसम्पदा के स्वयं की शक्ति के अनुसार वाद-विवाद करना, परिषद को देखकर वाद-विवाद करना, क्षेत्र को देखकर वाद-विवाद करना, काल को देखकर वाद-विवाद करना—ये चार प्रकार हैं। संग्रहपरिज्ञासम्पदा के वर्षाकाल में सभी मुनियों के निवास के लिए योग्यस्थान की परीक्षा करना, सभी श्रमणों के लिए प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक की व्यवस्था करना, नियमित समय पर प्रत्येक कार्य करना, अपने से ज्येष्ठ श्रमणों का सत्कार-सम्मान करना-ये भेद हैं। गणिसम्पदाओं के वर्णन के पश्चात् तत्सम्बन्धी चतुर्विध विनय-प्रतिपत्ति पर चिंतन करते हुए आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय और दोषनिर्घातविनय बताये हैं। यह चतुविध विनयप्रतिपत्ति है जो गुरुसम्बन्धी विनयप्रतिपत्ति कहलाती है। इसी प्रकार शिष्य सम्बन्धी विनय प्रतिपत्ति भी उपकरणोत्पादनता, सहायता, वर्णसंज्वलनता (गुणानुवादिता), भारप्रत्यवरोहणता है / इन प्रत्येक के पुनः चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में कुल 32 प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति का विश्लेषण है। पांचवें उद्देशक में दश प्रकार की चित्तसमाधि का वर्णन है। धर्मभावना, स्वप्नदर्शन, जातिस्मरणज्ञान, देवदर्शन, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलमरण (निर्वाण) इन दश स्थानों के वर्णन के साथ मोहनीयकर्म की विशिष्टता पर प्रकाश डाला है। छठे उद्देशक में ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमानों का वर्णन है। प्रतिमाओं के वर्णन के पूर्व मिथ्यादृष्टि के स्वभाव का चित्रण करते हुए बताया है कि वह न्याय का या अन्याय का किचिनमात्र भी बिना ख्याल किये दंड प्रदान करता है। जैसे सम्पत्तिहरण, मुडन, तर्जन, ताड़न, अंदुकबन्धन (सांकल से बांधना), निगडबन्धन, काष्ठबन्धन, चारकबन्धन (कारागृह में डालना), निगडयुगल संकुटन (अंगों को मोड़कर बांधना), हस्त, पाद, कर्ण, नासिका, अष्ठ, शीर्ष, मुख, वेद आदि का छेदन करना, हृदय-उत्पाटन, नयनादि उत्पाटन, उल्लंबन (वृक्षादि पर लटकाना), घर्षण, घोलन, शूलायन (शूली पर लटकाना), शूलाभेदन, क्षारवर्तन (जख्मों आदि पर नमकादि छिड़कना), दर्भवर्तन (घासादि से पीड़ा पहुंचाना), सिंहपुछन, वृषभपुछन, दावाग्निदग्धन, भक्तपाननिरोध प्रभृति दंड देकर आनन्द का अनुभव करता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि प्रास्तिक होता है व उपासक बन एकादश प्रतिमाओं की साधना करता है। इन ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का वर्णन उपासकदशांग में भी आ चुका है। [ 45 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org