Book Title: Agam 25 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Stahanakvasi Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni Publisher: Agam Prakashan SamitiPage 53
________________ कल्पता है और औणिक, प्रौष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक, मूजचिप्पक ये पांच प्रकार के' रजोहरण रखना कल्पता है। तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पता / इसी प्रकार निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय प्रादि में बैठना, खाना, पीना आदि नहीं कल्पता / प्रागे के चार सूत्रों में चर्म विषयक, उपभोग आदि के सम्बन्ध में कल्पाकल्प की चर्चा है। वस्त्र के सम्बन्ध में कहा है कि वे रंगीन न हों, किन्तु श्वेत होने चाहिए। कौनसी-कौनसी वस्तुएं धारण करना या न करना-इसका विधान किया गया है। दीक्षा लेते समय वस्त्रों की मर्यादा का भी वर्णन किया गया है। वर्षावास में वस्त्र लेने का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतू में आवश्यकता होने पर वस्त्र लेने में बाधा नहीं है और वस्त्र के विभाजन का इस सम्बन्ध में भी चिन्तन किया है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को प्रातिहारिक वस्तुएं उसके मालिक को बिना दिये अन्यत्र विहार करना नहीं कल्पता। यदि किसी वस्तु को कोई चुरा ले तो उसकी अन्वेषणा करनी चाहिये और मिलने पर शय्यातर को दे देनी चाहिए / यदि आवश्यकता हो तो उसकी आज्ञा होने पर उपयोग कर सकता है / चतुर्थ उद्देशक में अब्रह्मसेवन तथा रात्रि-भोजन आदि व्रतों के सम्बन्ध में दोष लगने पर प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। पंडक, नपुसक एवं वातिक प्रव्रज्या के लिए अयोग्य है। यहां तक कि उनके साथ संभोग एक साथ भोजन-पानादि करना भी निषिद्ध है। अविनीत, रसलोलुपी व क्रोधी को शास्त्र पढ़ाना अनुचित है। दुष्ट, मूढ और दुविदग्ध ये तीन प्रव्रज्या और उपदेश के अनधिकारी हैं। निग्रंन्थी रुग्ण अवस्था में या अन्य किसी कारण से अपने पिता, भाई, पुत्र आदि का सहारा लेकर उठती या बैठती हो और साधु के सहारे की इच्छा करे तो चातुर्मासिक प्रायश्चित पाता है। इसी तरह निर्ग्रन्थ माता, श्री आदि का सहारा लेते हुए तथा साध्वी के सहारे की इच्छा करे तो उसे भी चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इसमें चतुर्थ व्रत के खंडन की सम्भावना होने से प्रायश्चित्त का विधान किया है। निर्ग्रन्थ व निर्गन्थियों को कालातिक्रान्त, क्षेत्रातिक्रान्त प्रशनादि ग्रहण करना नहीं कल्पता। प्रथम पौरुषी का लाया हुआ आहार चतुर्थ पौरुषी तक रखना नहीं कल्पता। यदि भूल से रह जाय तो परठ देना चाहिए। उपयोग करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। यदि भूल से अनेषणीय, स्निग्ध प्रशनादि भिक्षा में आ गया हो तो अनपस्थापित श्रमण- जिनमें महाव्रतों की स्थापना नहीं की है उन्हें दे देना चाहिए। यदि वह न हो तो निर्दोष स्थान पर परठ देना चाहिए। आचेलक्य प्रादि कल्प में स्थित श्रमणों के लिए निर्मित आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्पनीय है। जो आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए निर्मित हो वह करूपस्थित श्रमणों के लिए अकल्प्य होता है। यहां पर कल्पस्थित का तात्पर्य है "पंचयामधर्मप्रतिपन्न" और अकल्पस्थित धर्म का अर्थ है "चातुर्यामधर्मप्रतिपन्न"। 1. "ौणिक" ऊरणिकानामूर्णाभिनिवृत्तम्, "पौष्ट्रिक" उष्ट्रोमभिनिवृत्तम्, “सानक" सनवृक्षवल्काद् जातम् "वाचकः" तृणविशेषस्तस्य "चिप्पकः'' कुट्टितः त्वगूपः तेन निष्पन्न वच्चकचिप्पकम् “मुजः" शरस्तम्बस्तस्य चिप्पकाद् जातं मुजचिप्पक नाम पंचममिति / -----उ० 2, सू० 25 [ 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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