________________ बावीस तीर्थंकरों (भगवान् अजितनाथ से भ० पार्श्वनाथ पर्यन्त) के श्रमण-श्रमणी प्रायः ऋजु-प्राज्ञ (सरल और प्रबुद्ध) होते थे। वे सूत्र सिद्धान्त प्रतिपादित समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन करने में सदा प्रयत्नशील रहते थे अतः उनकी व्यवहार शूद्धि अति सरल थी। अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की परम्परा के श्रमण-श्रमणी प्रायः वक्रजड हैं। दशा, कल्प, व्यवहार प्रादि में विशद श्रुत समाचारी के होते हुये भी प्रत्येक गच्छ भिन्न-भिन्न समाचारी की प्ररूपणा करता है। पर्युषणपर्व तथा संवत्सरी पर्व जैसे महान धार्मिक पर्वो की आराधना, पक्खी, चौमासी आलोचना भी विभिन्न दिनों में की जाती है। वक्रता और जड़ता के कारण मूलगुण तथा उत्तरगणों में लगने वाले अतिचारों की आलोचना भी वे सरल हृदय से नहीं करते अतः उनकी व्यवहार शुद्धि अति कठिन है।' पालोचना और आलोचक आलोचना-अज्ञान, अहंकार, प्रमाद या परिस्थितिवश जो उत्सर्ग मार्ग से स्खलन अर्थात अतिचार होता है—उसे गुरु के समक्ष प्रकट करना आलोचना है और आलोचक वह है जो पूर्वोक्त कारणों से लगे हुये अतिचारों को गुरु के समक्ष प्रकट करता है / ___ यदि आलोचक मायावी हो और मायापूर्वक पालोचना करता हो तो उसको आलोचना का उसे अच्छा फल नहीं मिलता है। यदि पालोचक मायावी नहीं है और मायारहित आलोचना करता है तो उसकी आलोचना का उसे अच्छा फल मिलता है। व्यवहारशुद्धि के लिये तथा निश्चय (आत्म) शुद्धि के लिये लगे हये अतिचारों की आलोचना करना अनिवार्य है किन्तु साधकों के विभिन्न वर्ग हैं। उनमें एक वर्ग ऐसा है जो अतिचारों की पालोचना करता ही नहीं है। उनका कहना है-हमने अतिचार (अकृत्य) सेवन किये हैं, करते हैं और करते रहेंगे। क्योंकि देश, काल और शारीरिक-मानसिक स्थितियां ऐसी हैं कि हमारा संयमी जीवन निरतिचार रहे.-ऐसा हमें संभव नहीं लगता है अत: आलोचना से क्या लाभ है यह तो हस्तिस्नान जैसी प्रक्रिया है। अतिचार लगे आलोचना की और फिर अतिचार लगे--यह चक्र चलता ही रहता है। उनका यह चिन्तन अविवेकपूर्ण है क्योंकि वस्त्र पहने हैं, पहनते हैं और पहनते रहेंगे तो पहने गये वस्त्र मलिन हुये हैं, होते हैं और होते रहेंगे--'फिर वस्त्र शुद्धि से क्या लाभ है !'---यह कहना कहाँ तक उचित है ? ब तक वस्त्र पहनना है तब तक उन्हें शुद्ध रखना भी एक कर्तव्य है. क्योंकि वस्त्रशुद्धि के भी कई लाभ हैं-प्रतिदिन शुद्ध किये जाने वाले वस्त्र प्रति मलिन नहीं होते हैं और स्वच्छ वस्त्रों से स्वास्थ्य भी समृद्ध रहता है / इसी प्रकार जब तक योगों के व्यापार हैं और कषाय तीव्र या मन्द है तब तक अतिचार जन्य कर्ममल लगना निश्चित है। 1. गाहा-पुरिमाणं दुब्बिसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालो। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालो / --उत्त. अ. 23, गाथा --27 / [ 32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org