________________ परम्परा में अहिंसादि का वर्णन है वह जैनसंस्कृति की देन है / ' आगम शब्द के अनेक अर्थ हैं। उस पर मैंने विस्तार से चर्चा की है। आचाराङ्ग में जानने के अर्थ में पागम शब्द का प्रयोग हमा है। "आगमेत्ता-आणवेज्जा"२ जानकर प्राज्ञा करे। लाघवं आगममाणे लघुता को जानने वाला / व्यवहारभाष्य में संघदासगणी ने प्रागम-व्यवहार का वर्णन करते हुए उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद किये हैं। प्रत्यक्ष में अवधि, मनापर्यव और केवल ज्ञान है और परोक्ष में चतुर्दश पूर्व और उनसे न्यून श्रुतज्ञान का समावेश है। इससे भी स्पष्ट है कि जो ज्ञान है वह प्रागम है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकरों के द्वारा दिया गया उपदेश भी ज्ञान होने के कारण प्रागम है। भगवती, अनुयोगद्वार और स्थानाङ्ग में प्रागम शब्द शास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ पर प्रमाण के चार भेद किये गये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और प्रागम / प्रागम के भी लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किए गए हैं। लौकिक पागम भारत, रामायण प्रादि हैं और लोकोत्तर पागम आचार, सूत्रकृत प्रादि हैं। लोकोत्तर आगम के सुत्तागम, अत्थागम और तदुभयागम ये तीन भेद भी किए गए हैं। एक अन्य दष्टि से आगम के तीन प्रकार और मिलते हैं-प्रात्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम / अागम के अर्थरूप और सत्ररूप ये दो प्रकार हैं। तीर्थंकर प्रभु अर्थरूप प्रागम: का उपदेश करते हैं अत: अर्थरूप ग्रामम तीर्थंकरों का प्रात्मागम कहलाता है, क्योंकि वह अर्थागम उनका स्वयं का है, दूसरों से उन्होंने नहीं लिया है, किन्तु वही अर्थागम गणधरों ने तीर्थंकरों से प्राप्त किया है / गणधर और तीर्थंकर के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है एतदर्थ गणधरों के लिए वह अर्थागम अनन्तरागम कहलाता है, किन्तु उस अर्थागम के आधार से स्वयं गणधर सूत्ररूप रचना करते हैं। इसलिए सूत्रागम गणधरों के लिए प्रात्मागम कहलाता है। गणधरों के साक्षात् शिष्यों को गणधरों से सूत्रागम सीधा ही प्राप्त होता है, उनके मध्य में कोई भी व्यवधान नहीं होता। इसलिए उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम है, किन्तु अर्थागम तो परम्परागम ही है। क्योंकि वह उन्होंने अपने धर्मगुरु गणधरों से प्राप्त किया है। किन्तु यह गणधरों को भी प्रात्मागम नहीं था। उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया था। गजधरों के प्रशिष्य और 1. संस्कृति के चार अध्याय : पृ. 125 -रामधारीसिंह "दिनकर" 2. प्राचारांग 124 ज्ञात्वा प्राज्ञापयेत् 3. आचारांग 116 / 3 लाघवं आगमयन् अवबुध्यमानः 4. व्यवहारभाष्य गा. 201 5. भगवती 5 / 3 / 192 6. अनुयोगद्वार 7. स्थानाङ्ग 338, 228, 8. अनुयोगद्वार 49-50 पृ. 68, पुण्यविजयजी सम्पादित, महावीर विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित 9. अहवा आगमे तिबिहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्तागमे य अत्थागमे य तदुभयागमे य / -~अनुयोगद्वारसूत्र 470, पृ. 179 10. अहवा प्रागमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा--अत्तागमे, अणंतरागमे परंपरागमे य / --अनुयोगद्वारसूत्र 470, पृ. 179 11. (क) श्रीचन्द्रीया संग्रहणी गा. 112 (ख) आवश्यकनियुक्ति गा. 92 [ 36 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org