________________ आगमव्यवहार केवलज्ञानियों, मनःपर्यवज्ञानियों और अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध आगमव्यवहार है। नव पूर्व, दश पूर्व और चौदह पूर्वधारियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध भी आगमव्यवहार ही है। श्रुतव्यवहार आठ पूर्व पूर्ण और नवम पूर्व अपूर्णधारी द्वारा आचरित या प्रतिपादित विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है। दशा (आयारदशा-दशाश्रुतस्कन्ध), कल्प (बृहत्कल्प), व्यवहार, आचारप्रकल्प (निशीथ) आदि छेदश्रत (शास्त्र) द्वारा निर्दिष्ट विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है / आज्ञाव्यवहार दो गीतार्थ श्रमण एक दूसरे से अलम दूर देशों में विहार कर रहे हों और निकट भविष्य में मिलने की सम्भावना न हो। उनमें से किसी एक को कल्पिका प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त लेना हो तो अपने अतिचार दोष कहकर गीतार्थ शिष्य को भेजे / यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो धारणाकुशल अगीतार्थ शिष्य को सांकेतिक भाषा में अपने अतिचार कहकर दूरस्थ गीतार्थ मूनि के पास भेजे और उस शिष्य के द्वारा कही गई आलोचना सनकर वह गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार कर स्वयं वहाँ आवे और प्रायश्चित्त दे। अथवा गीतार्थ शिष्य को समझाकर भेजे। यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो आलोचना का सन्देश लाने वाले के साथ ही सांकेतिक भाषाओं में अतिचार-शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का संदेश भेजे-यह प्राज्ञाव्यवहार है / 2 धारणाव्यवहार किसी गीतार्थ श्रमण ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस अतिचार का जो प्रायश्चित्त दिया है, उसकी धारणा करके जो श्रमण उसी प्रकार के अतिचार सेवन करने वाले को धारणानुसार प्रायश्चित्त आगमव्यवहार की कल्पना से तीन भेद किये जा सकते है उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य / 1. केवलज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेधपूर्ण उत्कृष्ट आगमव्यवहार है, क्योंकि केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। 2. मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान यद्यपि विकल (देश) प्रत्यक्ष हैं फिर भी ये दोनों ज्ञान आत्म-सापेक्ष हैं, इसलिये मन:पर्यवज्ञानियों या अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध (मध्यम) आगमव्यवहार है। 3. चौदह पूर्व, दश पूर्व और नव पूर्व (सम्पूर्ण) यद्यपि विशिष्ट श्रुत हैं, फिर भी परोक्ष हैं, अतः इनके धारक द्वारा प्ररूपित या आचरित विधि-निषेध भी आगमव्यवहार है, किन्तु यह जघन्य आयमव्यवहार है। 2. सो ववहार विहण्णू, अणुमज्जित्ता सुत्तोवएसेण / सीसस्स देइ अप्पं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं / / —व्यव० भा० उ० 10 गा०६६१ / [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org