Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications

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Page 330
________________ २६६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१ जं गुरुसगासे सुत्तत्थं तं मे गहित गुरूहि अणु ण्णासो, विहीए प्रापुच्छित्ता वइदादिसु अपडिबझनो प्रागतो, परिच्छितो सुद्धो य, जो तं + पडिच्छति प्रायरिओ तस्स चउलहुँ । जो विदू पणो वत्तणाणिमित्तं सो जति वत्तणं ण करेति तो से मासलहुं, एव संधणगहणेसु वि । पायरिमो वि जइ तं उपसंपणं दूरादिसु अच्छंतं ण सारेति, ण चोदेति तस्स वि वत्तणादिसु ठाणेसु मासलहुं । प्रत्ये पुण अकरेंत-प्रसारंताणं तिसु वि वत्तणादिसु ठागेम पत्तेयं मासगुरु । उभए वि पच्छित्तं । जम्हा एते दोसा तम्हा गुरुणा सारेयन्या - "प्रज्जो ! जटुं प्रागतो तं वत्तणादिकं न करेसि" ॥६३६३॥ "प्रणापुच्छ" त्ति अस्य व्याख्या - अणणुण्णाऽणुण्णाते, देंत पडिच्छंत्त भंगचउरो तु । भंगतिए मासलहु, दुहतोऽणुण्णाते सुद्धो उ ॥६३६४॥ अणुण्णाप्रो अणणुण्णातेण सह वत्तणं करेति, एवं चउभंगो कायम्बो, एवं संघणागहणेसु वि चउभंगो, एत्थ प्रादिल्लेसु तिसु मंगेसु देते गेण्हताणं सुत्ते मासलहुं । तबकालविसेसितं अत्थे मासगुरु । चउत्थभंगो पुण दुहतोऽगुणणातत्तणमो सुद्धो ॥६३६४ । णाणे ति गयं । इदाणि दंसणं एमेव दंसणे वी, ववणमादी पदा उ जह णाणे । सगणामंतण-खमण, अणिच्छमाणं न उ णिोए ॥६३६५।। पुनद्धं कंठं इदाणि चरित्तोवसंपदा सा दुविधा- वेयावच्चे खमणे य । तत्थ वेयावच्चोवसंपदाए इमा कारावणविही - तुल्लेसु जो सलद्धी, अण्णस्स व वारएण इच्छंते ! तुल्लेसु य आवकही, तस्साणुमते व इत्तरिए ॥६३६६॥ प्रायरियाणं एक्को गच्छे वेयावच्चकरो, प्रवरो अण्णगणातो पच्छा प्रागतो भणति - प्रहं मे क्यावच्चं करेमि, तत्य कतरो कारविज्जति ?, "तुल्लेसु" तत्थ जति दो वि तुल्ला कालतो वि इत्तरिया तत्येगो सलदी सो कारविज्जति, अहवा - दो वि प्रावकही तत्थ वि जो सलद्धी सो कारविज्जति । अह दो वि इत्तरिया दो वि सलद्धिया, एत्थ प्रागंतुगो उवज्झायदीण अण्णस्स वेयावच्चं कारविज्जति, भणियं च- "उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापजवसाणे भवति ।" अहवा-जति वत्ययो वेयावच्चकरो इच्छति तो वारोवारेणं कारविज्जति, प्रागंतुगो वा कालं पडिक्खाविज्जति जाव पुविल्लस्स इत्तरकालो समप्पड़, आवकहीसु वि दोसु सलद्धिएम एवं वारयं मोतुं । अहवा-एक्को इत्तरियो एक्को प्रावकही "तुल्लेसु" त्ति लडीए एत्थ प्रावकही कारविज्जति, इत्तरिमो अण्णस्स सण्णिउज्जति, अहवा- सो वत्थन्वो प्रावकही भण्णति तुमं ताव वीसमाहि एवं वुत्तो जति इच्छति तो तस्स प्रणमते प्रागंतु इत्तरिमो कारविज्जइ, तम्मि अणिच्छे णो कारविज्जति, सो समत्ते गच्छिहिति, पच्छा इयरोण काहिति, तो पायरियो उभयभट्ठो भविस्सइ । प्रह इत्तरिमो प्रावकहितो य य दो वि अलढिसंपण्णा तत्थ प्रावकहिणा कारेयव्वं, इयरो अण्णस्स सणिउज्जति विसज्जिज्जइ वा। मह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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