Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications

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Page 409
________________ विशतितम उद्देशक: एवं सुद्धतवेणेव सुद्धी भवति, परिहारतवेण णेव भवइ । कहं ? उच्यते - " अम्मया सुद्धो" त्ति अस्य व्यख्या - माध्यगाथा ६६०२-६६०८ ] जो जं काउ समत्थो, सो तेण विसुज्झते सदभावो । गूहितबलो ण सुज्झति, धम्मसभावो ति एगट्ठा ॥ ६६०३ ॥ जो साधू "जं" ति सुद्धतवं परिहारतवं वा काचं समत्यो भवति स साधू तेणेव तवेण सुज्झति । भावोति स्ववीयं प्रतिमायां प्रकुव्यमाणो स्वधर्मव्यवस्थितस्त्राच्च, जो पुण स्ववीयं गृहति सो न सुज्झति, जती तस्स धम्मो ति वा, सभावो त्ति वा दो वि एगट्ठा ॥६६०३॥ एते शुद्धपरिहारतव विशेषज्ञापनार्थमिदमुच्यते - सुद्धतवे परिहारिय, आलवणादीसु कक्खडे इतरे । कपट्टिय अणुपरिट्टण वेयावच्चकरणे य ||६६०४॥ सीसो पुच्छति - सुद्धतत्र परिहारतवाणं कतरो कक्खडो वा, प्रक्रक्खडो वा ? आयरियो भगति - सुद्धतवो घालवणादिहि श्रकक्खडो, इयरोति परिहारतवो सो प्रणालवणादीहि कक्खडो । जो पुण तवकालो, तवकरणं वा तं दोसु वि तुल्लं । श्रावण्णपरिहारं पवष्णस्स जे कप्पट्टतअणुपरिहारिया ठविया तेहि कर णिज्जं "वेयावडियं" ति सुत्तपदं ॥ ६६०४॥ किं पुण तं वेयावडियं, जं कायव्वं ?, प्रत उच्यते Ap ३७५ वेयावच्चे तिविहे, अप्पाणम्मि य परे तदुभए य । अणुसडि उबालंभे, उवग्गहो चैव तिविहम्मि || ६६०५|| दव्वेण भावेण वा जं प्रप्पणी परस्स वा उवकारकरणं तं सव्वं वेयावच्चं । तं च तिविहं प्रणुसट्टी, उवालंभो, उवणहो य । उवदेसपदाणमणुसट्ठी श्रुतिकरणं वा प्रसट्ठी । सा तिविहा - प्राय पर उभयाणुसो, प्रत्ताणुसट्ठी जो प्रत्ताणं प्रणुसासति, पराणुसट्ठी जो परं श्रणुसासति, परेण वा प्रसट्ठी ।। ६६०५ ।। अणुसीय सुभद्दा, उवलंभम्मि य मिगावती देवी । आयरियो दोसु वि उवग्गहेसु सव्वत्थ श्रायरियो || ६६०६ || पराणसट्ठीए जहा चंपानयरीए सुभद्दा णागरजणे अणुसट्टा “घण्णा सपुष्णा सि" ति । उभयाणुपट्टी जो प्रत्ताणं परं च प्रणुमासति ।। ६६०६ ।। Jain Education International - एवं तिविहं पि प्रणुट्ठि इमेण गाथाजुयलत्थेण श्रणुसरेज्जा - दंडसुलभम्मि लोए, मात्र मतिं कुणसु दंडियो मित्ति । एस दुलहो उदंडो, भवदंडणिवारणी जीव || ६६०७॥ कंख्या । ण केवलं एस दडो भवणिवारगो, श्रपि चात्मानाचारमलिनो विशोधितः || ६६०७॥ वि यहु विसोहितो ते, अप्पाऽणायारमतिलिचो जीव । इति अप्प परे उभए, अणुसट्टि धुइ ति एगट्ठा || ६६०८ || १ गा० ६६०२ । २ सू० १७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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