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आत्म वल्लभ संस्कृति मन्दिर
में डालकर उन्होंने आत्तायियों से संघ और समाज की रक्षा की। उनकी दैवी शक्ति अलौकिक थी । जब गुजरांवाला से गुरुदेव ने श्रीसंघ को साथ लेकर भारत की ओर प्रस्थान किया तो हजारों उपद्रवियों ने हथियार लेकर उनका रास्ता रोक दिया था। परन्तु गुरुदेव ने कुछ ऐसा चमत्कार दिखाया कि न जाने कहां से फौज की एक टुकड़ी आई, जिसने शत्रु को भगाकर रास्ता साफ कर दिया। ऐसा भी उदाहरण है कि डाक्टरों द्वारा मृत घोषित व्यक्ति भी उनके आशीर्वाद से जीवित हो उठा ।
स्मारक निर्माण के लिए एक अखिल भारतीय ट्रस्ट की स्थापना, श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि के नाम से, भगवान् महावीर के 25 सौवें निर्वाण वर्ष की पावन वेला में दिनांक 12.6.1974 को हुई थी। यह पंजीकृत ट्रस्ट है और इन्कम टैक्स की धारा 80 जी के अन्तर्गत दान-दाताओं को कर से छूट प्राप्त है। देश के प्रमुख जैन इसके ट्रस्टी हैं। कांगड़ा तीर्थोद्वारिका साध्वी जैन - भारती महत्तरा मृगावती जी ने आचार्य श्रीमद्विजय समुद्र सूरिजी महाराज से, स्मारकनिर्माण के आदेश प्राप्त किये और वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य श्री विजयेन्द्रदिन्न सूरिजी महाराज का आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन भी उन्हें मिला था। दि. 29 नवम्बर 1979 को इस भवन का शिलान्यास पूज्य महत्तराजी के सान्निध्य में सम्पन्न हुआ। उनके प्रवचन के फलस्वरूप श्रोताओं ने स्वतः ही आर्थिक योगदान दे दिया गया। उनकी प्रेरणा से विपुल राशि एकत्रित हुई है। महत्तरा जी ने अपने जीवन का सर्वस्व इसमें लगा दिया था ।
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सेठ कस्तूरभाई लालभाई स्मारक योजना के सम्बल और संरक्षक बने थे । खेद है कि न तो आचार्य समुद्र सूरिजी महाराज और न ही सेठ कस्तूरभाई लालभाई इस स्मारक के निर्माण को अपनी आंखों से देख सके। परन्तु पूज्या महत्तराजी ने अपने हाथ से जिस योजना की नींव डाली थी, उसका अधिकांश भाग अपने तप, त्याग और कर्मठता के बल पर अपने जीवन काल में ही सम्पन्न कर लिया था । महत्तराजी का भी देवलोक गमन हो चुका है। समाज उनका ऋणी रहेगा। उनका नाम भी इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित होगा ।
इस "निधि" के पास बीस एकड़ भूमि है। स्मारक भवन के अतिरिक्त, एक जिन-मन्दिर, छात्रालय, पुस्तकालय कक्ष तथा विद्यापीठ एवं उपाश्रय आदि अनेक भवन भी बन चुके हैं। समस्त निर्माण वास्तुकला के अनुरूप भव्य और कलात्मक है। मन की शांति एवं साधना और आराधना के लिए यह अत्यन्त उपयुक्त स्थान है। महत्तराजी ने इस विशाल प्रांगण को "आत्म-वल्लभ-संस्कृति मन्दिर" नाम दिया था । संक्षेप में इसे "विजय-वल्लभ-स्मारक" भी कहते हैं । भारतीय धर्म दर्शन पर शोध कार्य करने के लिए यहां पर "भोगीलाल लेहरचंद भारतीय संस्कृति संस्थान" स्थापित हो चुका है। उसके लिये एक विशाल हस्तलिखित ग्रन्थभंडार एवं पुस्तकालय उपलब्ध है। देश-विदेश से गवेषक यहां शोध कार्य हेतु पधारते हैं। उनके आवास और भोजनादि की समुचित एवं निःशुल्क व्यवस्था यहां उपलब्ध है। शोध एवं अन्य विद्यार्थियों को अनुदान देकर ऊंची शिक्षा दिलवाई जाती है। अनेक गोष्ठियां भी यहां सम्पन्न हो चुकी हैं। संस्कृत एवं प्राकृत अध्ययन तथा अध्यापन की भी व्यवस्था है। प्रकट प्रभावी माता पद्मावती देवी का, स्मारक प्रांगण में, शिल्पानुरूप निर्मित मन्दिर श्रद्धा का विशेष केन्द्र बन चुका है, जहां सभी के मनोरथ पूरे होते हैं। महत्तरा मृगावतीजी की समाधि तो एक गुफा सी प्रतीत होती और यात्रि उसके भीतर जाकर स्वतः नतमस्तक हो जाता है । भोजनालय के अतिरिक्त चिकित्सा हेतु एक डिस्पेंसरी भी चलाई जाती है। जैन एवं समकालीन कला का एक संग्रहालय तथा स्कूल एवं अतिथिगृह बनाने का भी प्रावधान किया गया है।
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