Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan
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) )) [उ. ] गौतम ! अंगार, राख, भूसा और गोबर (छाणा); ये सब पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से (वनस्पतिकाय रूप) एकेन्द्रिय जीवों द्वारा अपने शरीर रूप से, प्रयोगों से अपने व्यापार से अपने साथ परिणामित एकेन्द्रिय शरीर हैं, यावत् (यथासम्भव द्वीन्द्रिय से) पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर भी कहे जा सकते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों (पशुओं) के शरीर में द्वीन्द्रियादि जीव चले जाने से उनके शरीर प्रयोग से परिणामित होने से उन्हें द्वीन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय जीव तक का शरीर कहा जा सकता है और तत्पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निकाय-परिणामित हो जाने पर वे अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जाते हैं।
16. (Q.) Bhante ! To what category of beings do the bodies of cinder (or other burning matter), ash, hay and cow-dung belong ? __[Ans.] Gautam ! In terms of their original state, cinder (or other burning matter), ash, hay and cow-dung all these are bodies and parts thereof of one-sensed beings... and so on up to... five-sensed beings transformed through their natural activities (also one to five-sensed beings entering the bodies of one to five sensed beings and getting transformed through the natural activities of those beings). After that when they are processed with implements... and so on up to... fire and undergo transformation they may be called bodies of fire-bodied beings.
विवेचन : सूत्र १३ से १६ तक के सूत्र परिणामवाद के सिद्धान्त के प्ररूपक हैं। वस्तु (द्रव्य अथवा जीव) जिस भाव में परिणत होती है, वह पूर्व भाव (पूर्व अवस्था) को छोड़कर तत्काल उत्तर अवस्था को प्राप्त हो जाती है। ___Elaboration-Aphorisms 13-16 convey the theory of evolutionalism (parinam-vaad). When undergoing transformation a thing (matter or life) leaves its existing state and at once evolves into the secondary state. लवणसमुद्र की स्थिति DIMENSIONS OF LAVAN-SAMUDRA
१७. [प्र. ] लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवाल विक्खंभेणं पन्नत्ते ? [उ. ] एवं णेयव्वं जाव लोगद्विती लोगाणुभावे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं जाव विहरति।
पंचम सए : बिइओ उद्देसओ समत्तो ॥ १७. [प्र. ] भगवन् ! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कम्भ (सब तरफ की चौड़ाई) कितना कहा है ?
[उ. ] गौतम ! (लवणसमुद्र के सम्बन्ध में सारा वर्णन) पहले कहे अनुसार जान लेना चाहिए, यावत् लोकस्थिति लोकानुभाव तक (जीवाभिगमोक्त सूत्रपाठ) कहना चाहिए।
|पंचम शतक : द्वितीय उद्देशक
(33)
Fifth Shatak : Second Lesson |
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