Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan
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# heavily. He carried his ascetic-broom (rajoharan) tucked in his arm-pit, 41 and bowl (in a bag in his hand). __ [३] तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे वाहयं वहमाणं पासति, पासित्ता मट्टियापालिं बंधति, बंधित्ता
'णाविया मे णाविया मे. णाविओ विव णावमयं पडिग्गहं. उदगंसि कटट पव्वाहमाणे पव्वाहमाणे अभिरमति। ___[३] तत्पश्चात् (बाहर जाते हुए) उस अतिमुक्तक कुमार श्रमण ने (मार्ग में) बहता हुआ पानी का है
एक छोटा-सा नाला देखा। उसे देखकर उसने उस नाले के दोनों ओर मिट्टी की पाल बाँधी। इसके के पश्चात् नाविक जिस प्रकार अपनी नौका पानी में छोड़ता है, उसी प्रकार उसने भी अपने पात्र को 5
नौकारूप मानकर, पानी में छोड़ा। फिर 'यह मेरी नाव है, यह मेरी नाव है,' यों पात्र रूपी नौका को पानी में प्रवाहित करते (तिराते हुए) क्रीड़ा करने (खेलने) लगे। ___[3] On the way Kumar-shraman Atimuktak saw a small stream of flowing water. On seeing this he raised earthen dams on two sides across the stream. After that he floated his pot on water, like a sailor does his 451 boat, considering his pot to be a boat. He then started playing around with that pot-boat floating on water surface and uttering-"This is my boat! This is my boat !"
[४] तं च थेरा अद्दक्खु। जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वयासीकी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे, से णं भंते ! अइमुत्ते कुमारसमणे कतिहिं
भवग्गहणेहिं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ?
___ 'अज्जो !' ति समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वयासी-एवं खलु अज्जो ! ममं अंतेवासी अतिमुत्ते है + णामं कुमारसमणे पगइभद्दए जाव विणीए, से णं अइमुत्ते कुमारसमणे इमेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झिहिइ .
जाव अंतं करेहिइ। तं मा णं अज्जो ! तुडभे अइमुत्तं कुमारसमणं हीलेह निंदह खिंसह गरहह अवमत्रह।
तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हह, अगिलाए उवगिण्हइ अगिलाए भत्तेणं 3. पाणेणं विणयेणं वेयावडियं करेह। अइमुत्ते णं कुमारसमणे अंतकरे चेव, अंतिमसरीरिए चेव।
[५] तए णं थेरा भगवंतो समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदंति + णमंसंति, अतिमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हंति जाव वेयावडियं करेंति। 卐 [४] इस प्रकार नौका चलाते हुए उस अतिमुक्तक कुमारश्रमण को स्थविरों ने देखा। स्थविर
(अतिमुक्तक कुमारश्रमण को कुछ भी कहे बिना) जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ ॐ आए और निकट आकर उन्होंने उनसे पूछा
___ भगवन् ! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी (शिष्य) जो अतिमुक्तक कुमारश्रमण है, वह कितने भव 卐 (जन्म) ग्रहण करके सिद्ध होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा?
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भगवती सूत्र (२)
(52)
Bhagavati Sutra (2)
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