Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 393
________________ FFFFFF 卐55555555))))))))))))))))))))))) 85555555555555555555555555555555555 4 (navakoti vishuddha), that is free of ten faults including doubtful, that is i free of faults of exploring related to origin (sixteen faults of udgam) and 45 production (sixteen faults of utpadan), that is free of any contamination, and that is free of (aforesaid) faults like Angaar-dosh, Dhoom-dosh and Samyojana dosh. And he or she eats that food without producing any slurping or chewing sound, without any haste or delay, without leaving any leftovers, without dropping on the ground. He or she eats only small quantity, just like grease on an axle or ointment on a wound, simply for 41 the purpose of facilitating his path of discipline and carrying the burden of restraint. He or she eats simply and naturally just like a snake enters (straight) into its hole. Gautam ! That food (taken thus) is called Shastrateet (cooked in fire), Shastraparinanamit (made life-less), Eshit (suitable for an ascetic), Vyeshit (offered due to ascetic garb), Saamudayik (collected from various houses). ___“Bhante ! Indeed that is so. Indeed that is so." With these words... and so on up to... ascetic Gautam resumed his activities. विवेचन : अंगारादि दोषों का स्वरूप- मुनि गवेषणैषणा और ग्रहणैषणापूर्वक जो आहार लाता है। उस आहार को साधुओं के मण्डल (मांडले) में बैठकर सेवन करते समय जो दोष लगते हैं, उन्हें ग्रासैषणा 卐 (परिभोगैषणा) के पाँच दोष कहते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) अंगार-सरस स्वादिष्ट आहार में आसक्त होकर खाना। इस प्रकार अग्नि से संयम रूप ईंधन कोयले (अंगार) की तरह दूषित हो जाता है। (२) धूम-नीरस या अमनोज्ञ आहार करते हुए आहार या दाता की निन्दा करना। (३) संयोजना-स्वादिष्ट एवं रोचक बनाने के लिए ॐ लोलुपतावश एक द्रव्य के साथ दूसरे द्रव्यों को मिलाना। (४) अप्रमाण-शास्त्रोक्तप्रमाण से अधिक आहार + करना, और (५) अकारण-साधु के लिए ६ कारणों से आहार करने और ६ कारणों से छोड़ने का विधान है, किन्तु उक्त कारणों के बिना केवल बलवीर्यवृद्धि के लिए आहार करना। इन ५ दोषों का वर्णन सूत्र १७ से २० तक में किया गया है। कुक्कुटी-अण्डप्रमाण का तात्पर्य-आहार का प्रमाण बताने के लिए 'कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण' शब्द दिया है। है इसके दो अर्थ होते हैं-(१) कुक्कुटी (मुर्गी) के अंडे के जितने प्रमाण का एक कवल (ग्रास) होता है। तथा (२) म जीवरूपी पक्षी के लिए आश्रय रूप होने से यह गन्दी अशुचिप्राय काया 'कुकुटी' है, इस कुकुटी के उदरपूरक पर्याप्त आहार को कुकुटी-अण्डकप्रमाण कहते हैं। शस्त्रातीतादि की व्याख्या-शस्त्रातीत = अग्नि आदि शस्त्र से पका हुआ, शस्त्र परिणामित = शस्त्रों से वर्णगन्ध-रस-स्पर्श अन्य रूप में परिणत किया हुआ, अर्थात-अचित्त किया हुआ। एसियस्स = एषणीय-गवेषणा ॥ आदि से गवेषित। वेसियस्स = विशेष या विविध प्रकार से गवेषणा, ग्रहणैषणा एवं ग्रासैषणा से विशोधित मुनि * वेष के निमित्त से प्राप्त। सामुदाणियस्स = गृहसमुदायों से प्राप्त। 5 नवकोटिविशुद्ध का अर्थ-(१) किसी जीव की हिंसा न करना, (२) न कराना, (३) न ही अनुमोदन करना, (४) स्वयं न पकाना, (५) दूसरों से न पकवाना, (६) पकाने वालों का अनुमोदन न करना, (७) स्वयं न सप्तम शतक : प्रथम उद्देशक (347) Seventh Shatak : First Lesson 855555555555555555555555555)))))))))) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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