Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 545
________________ 3555555555555555555555555555555555555 ॐ २९. [१] जो पुद्गल सम्मूर्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तैजस और फ़ + कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं। [ २ ] इसी प्रकार अपर्याप्तक गर्भज-मनुष्य के विषय में भी कहना चाहिए।[३] पर्याप्तक गर्भज-मनुष्य के विषय में भी (सामान्यतया) इसी तरह कहना चाहिए। विशेषता के 卐 यह है कि इनमें (औदारिक से लेकर कार्मण तक) पाँच शरीर कहना चाहिए। 29. [1] The matter particles (pudgala) that are sammurchhim i manushya panchendriya prayoga parinat pudgala (matter consciously transformed as bodies of five sensed human beings of asexual origin) are, in fact, consciously transformed as gross physical (audarik), fiery (taijas) and karmic (karman) bodies. [2] The same should be repeated for matter particles related to aparyaptak garbhavyutkrantik manushya (underdeveloped human beings born out of womb). [3] The same is also (generally) true for paryaptak garbhavyutkrantik manushya (fully developed human beings born out of womb) with a difference that all the five kinds of bodies from audarik to karman should be mentioned. ३०.[१] जे अपज्जत्तगा असुरकुमारभवणवासि जहा नेरइया तहेव। एवं पज्जत्तगा वि। [ २ ] एवं ॐ दुयएणं भेदेणं जाव थणियकुमारा। ३०. [१] जो पुद्गल अपर्याप्तक असुरकुमार-भवनवासीदेव-प्रयोगपरिणत हैं, उनका आलापक ॐ नैरयिकों की तरह कहना चाहिए। पर्याप्तक-असुरकुमारदेवों के विषय में और [ २ ] स्तनितकुमारपर्यन्त पर्याप्तक-अपर्याप्तक दोनों में भी इसी तरह कहना चाहिए। ॐ 30. [1] The matter particles (pudgala) that are aparvaptak Asur Kumar Bhavan-vaasi dev prayoga parinat pudgala (matter consciously transformed as underdeveloped bodies of Asur Kumar abode dwelling gods) should be described like the statement about infernal beings. That about paryaptak Asur Kumar gods and [2] paryaptak and aparyaptak divine beings up to Stanit Kumar gods also follows the same pattern. ३१. एवं पिसाया जाव गंधव्या, चंदा जाव ताराविमाणा, सोहम्मो कप्पो जाव अच्चुओ, म हेट्ठिमहेट्ठिमगेवेज जाव उवरिमउवरिमगेवेज्ज०, विजय-अणुत्तरोववाइए जाव सवट्ठसिद्धअणु०, है एक्केक्केणं दुयओ भेदो भाणियव्वो जाव जे पज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइया जाव परिणया ते 卐 वेउब्धिय-तेया-कम्मासरीरपयोगपरिणया। दंडगा ३। ३१. इसी तरह पिशाच से लेकर गन्धर्व वाणव्यन्तर-देव, चन्द्र से लेकर ताराविमान-पर्यन्त, फ़ ज्योतिष्क-देव और सौधर्मकल्प से लेकर यावत् अच्युतकल्प-पर्यन्त तथा अधःस्तन-अधःस्तन-ग्रैवेयक कल्पातीतदेव से लेकर उपरितन-उपरितन ग्रैवेयककल्पातीत देव तक एवं विजय-अनुत्तरौपपातिक ॐ कल्पातीतदेव से लेकर यावत् सर्वार्थसिद्ध कल्पातीत वैमानिकदेवों तक पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों म 5555555555555555))))55555555555555559 अष्टम शतक : प्रथम उद्देशक (487) Eighth Shatak: First Lesson Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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