Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 512
________________ ‘ऐसा (सुना) है कि श्रमण ज्ञातपुत्र पाँच अस्तिकायों का निरूपण करते हैं; यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय। इनमें से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र ‘अजीव-काय' बताते हैं। जैसे कि-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। एक जीवास्तिकाय को श्रमण ज्ञातपुत्र 'अरूपी' और जीवकाय बतलाते हैं। उन पाँच अस्तिकायों में से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपीकाय बतलाते हैं। जैसे कि-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय। केवल एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण ज्ञातपुत्र रूपीकाय और अजीवकाय कहते हैं। उनकी यह बात कैसे मानी जाये? 3. One day all these heretics came and sat comfortably together at one place. After that they deliberated among themselves "It is said that Shraman Jnataputra (Bhagavan Mahavir) describes five Astikaaya (existent conglamorative ontological categories or entities)-Dharmastikaaya (motion entity), Adharmastikaaya (rest entity), Akashastikaaya (space entity), Pudgalastikaaya (matter entity), and Jivastikaaya (life entity). Of these, Shraman Jnataputra classifies four Astikaayas as non-living entities (ajiva kaaya)-Dharmastikaaya (motion entity), Adharmastikaaya (rest entity), Akashastikaaya (space entity) and Pudgalastikaaya (matter entity). According to Shraman Jnataputra, Jivastikaaya (life entity) is the only living entity (jiva kaaya) and it is formless (arupi). Of these five Astikaayas four are formless according to Shraman Jnataputra-Dharmastikaaya (motion entity), Adharmastikaaya (rest entity), Akashastikaaya (space entity) and Jivastikaaya (life entity). Only Pudgalastikaaya (matter entity) is with form (rupi) and non-living entity (ajiva kaaya) according to Shraman Jnataputra. How to accept his proposition ? ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव गुणसिलए समोसढे जाव परिसा पडिगया। ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूइ णाम अणगारे गोतमगोत्ते णं जहा बिइयसते नियंठुद्देसए (श० २, उ० ५, सू० २१-२३) जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापज्जत्तं भत्त-पाणं पडिग्गाहित्ता रायगिहाओ जाव अतुरियमचवलमसंभंते जाव रियं सोहेमाणे सोहेमाणे तेसिं अन्नउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीइवयति। ४. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर गुणशीलक चैत्य में पधारे, वहाँ उनका समवसरण लगा। परिषद् (धर्मोपदेश सुनकर) वापस चली गई। ५. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थ उद्देशक में कहे अनुसार भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करते हुए यथापर्याप्त आहार-पानी ग्रहण करके राजगृह नगर से यावत् त्वरारहित, चपलतारहित, सम्भ्रान्ततारहित, यावत् ईर्यासमिति का शोधन करते-करते अन्यतीर्थिकों के पास से होकर निकले। भगवती सूत्र (२) (454) Bhagavati Sutra (2) ज ))) ))))) )))555555555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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