Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 469
________________ फ्र २२. [प्र. ] परमाहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंत करेत्तए, नूणं भंते! से खीणभोगी० । [उ.] सेसं जहा छउमत्थस्स । २२. [ प्र.] भगवन् ! परम अवधिज्ञानी मनुष्य जो उसी भव में सिद्ध होने वाला यावत् सर्व-दुःखों को अन्त करने वाला है, क्या वह क्षीणभोगी ( दुर्बल शरीर वाला है) यावत् भोगने योग्य विपुल भोगों को भोगने में समर्थ है ? [ उ. ] (हे गौतम !) इसका उत्तर भी छद्मस्थ के लिए दिए हुए उत्तर के समान जानना चाहिए । (अर्थात् वह भोगी है। भोगों का परित्याग करता हुआ महानिर्जरा महापर्यवसान को प्राप्त होता है। 22. [Q.] Bhante ! A param-avadhi jnani (a person with perfect avadhi jnana), destined to be liberated in the same birth with an emaciated body... and so on up to ... wavering intent to act; and insignificant valour. Bhante ! Do you affirm this statement ? [Ans.] (Gautam !) What has been said about a chhadmasth should be repeated here. (Which means that he is a bhogi and is able to attain extensive shedding of karmas and a noble end only by voluntary renouncing pleasant experiences.) २३. [प्र.] केवली णं भंते! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं० । [ उ. ] एवं चैव जहा परमाहोहिए जाव महापज्जवसाणे भवति । २३. [ प्र. ] भगवन् ! केवलज्ञानी मनुष्य भी, जो उसी भव में सिद्ध होने वाला है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करने वाला है, क्या वह विपुल और भोग्य भोगों को भोगने में समर्थ है ? परमावधिज्ञानी की तरह करना चाहिए, या यावत् वह [उ. ] ( हे गौतम !) इसका कथन महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। 23. [Q.] Bhante ! A Keval jnani (a person with omniscience), destined to be liberated in the same birth... and so on up to... end all miseries, with an emaciated body... and so on up to... wavering intent to act; and insignificant valour. Bhante ! Do you affirm this statement ? [Ans.] (Gautam !) What has been said about a param-avadhi jnani should be repeated here.... and so on up to... He is able to attain extensive shedding of karmas (maha nirjara) and a noble end (mahaparyavasan). विवेचन : सूत्र २१ से २३ तक के वर्णन का निष्कर्ष यह है कि चाहे कोई शरीर से दुर्बल अशक्त होने पर भोग भोगने में असमर्थ हों, किन्तु जब तक वह मन-वचन-काया से भोगों का त्याग नहीं करता है, तब तक सप्तम शतक : सप्तम उद्देशक (419) Jain Education International 6955959595959555595555555955555 5 5959595954 Seventh Shatak: Seventh Lesson For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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