________________ धूप की भी आवश्यकता होती है / इसी तरह साधना में निखार लाने के लिये परीषह की उष्णता भी प्रावश्यक है। परीषह आने पर साधक घबराता नहीं है। पर वह सोचता है कि अपने आप को परखने का मुझे सुनहरा अवसर मिला है। उत्तराध्ययननियुक्ति 81 के अनुसार परीषह अध्ययन, कर्मप्रवाद पूर्व के सत्तरहवें प्राभृत से उद्धत हैं / तत्त्वार्थसूत्र 182 में भी परीषहों का निरूपण किया गया है। तेईसवां और चौवीसवां समवाय : एक विश्लेषण तेईसवें समवाय में निरूपित है-तेईस सूत्रकृतांग के अध्ययन, जम्बूद्वीप के इक्कीस तीर्थकरों को सूर्योदय के समय केवलज्ञान समुत्पन्न होना, भगवान् ऋषभदेव को छोड़कर तेईस तीर्थंकर पूर्वभव में ग्यारह अंग के ज्ञाता थे। ऋषभ का जीव चतुर्दश पूर्व का ज्ञाता था। तेईस तीर्थकर पूर्वभव मे माण्डलिक राजा थे। ऋषभ चक्रवर्ती थे। नारकों व देवों की तेईस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति बताई गई है। यहाँ पर सुत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह, और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन मिलाकर कुल तेईस अध्ययनों का निरूपण किया है / प्रस्तुत समवाय में तेईस तीर्थंकरों को सूर्योदय के समय केवलज्ञान उत्पन्न होने की बात कही है / आवश्यकनियुक्ति१८3 में प्रथम तेईस तीर्थंकरों को पूर्वाह्न में और महावीर को पश्चिमाह में केवलज्ञान हुआ, ऐसा लिखा है। टीकाकार ने एक मत यह भी दिया है कि बाईस तीर्थंकरों को दिन के पूर्व भाग में और मल्ली भगवती और श्रमण भगवान् महावीर को दिन के अन्तिम भाग में केवलज्ञान हुआ / दिगम्बर ग्रन्थों में किस समय किस को केवलज्ञान हुआ, इस सम्बन्ध में मतभेद है / आवश्यकनियुक्ति के अनुसार भगवान ऋषभदेव के जीव को बारह अंगों का ज्ञान था, 164 यह स्पष्ट संकेत है। दिगम्बर परम्परा का अभिमत है कि ऋषभ के जीव को ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञान था / इस तरह तेइसवें समवाय में सामग्री का चयन हुआ है। चौवीसवें समवाय में निरूपित है---चौबीस तीर्थकर, क्षल्लक हिमवन्त, और शिखरीपर्वत की जीवाएँ, चौबीस अहमिन्द्र, चौवीस अंगुल बाली उत्तरायणगत सूर्य की पौरुषी छाया, गङ्गा सिन्धु महानदियों का उद्गमस्थल पर चौबीस कोस का विस्तार, नारकों व देवों की चौबीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति / पच्चीसवां समवाय : एक विश्लेषण __ पच्चीसवें समवाय में प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों के पंचयाम यानी पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ कही गई हैं। मल्ली भगवती पच्चीस धनुष ऊँची थी। वैताढ्य पर्वत पच्चीस योजन ऊँचा है और पच्चीस कोस भूमि में गहरा है। दूसरे नरक के पच्चीस लाख नारकावास हैं। प्राचारांग सूत्र के पच्चीस अध्ययन है / अपर्याप्तक मिथ्यादष्टि विकलेन्द्रिय नाम कर्म की पच्चीस उत्तर प्रकृतियाँ बाँधते हैं / लोकबिन्दुसार पर्व के पच्चीस अर्थाधिकार हैं। नारकों और देवों की पच्चीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति है। यहाँ पर सर्वप्रथम पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ बतायी हैं। भावना साधना के लिए आवश्यक है। उसमें अपार बल और असीमित शक्ति होती है। भावना के बल से असाध्य भी साध्य हो जाता है। जिन चेष्टाओं और संकल्पों से मानसिक विचारों को भावित या वासित किया 181. क-उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा 69 ख-उत्तराध्ययन चूणि पृ. 7 182. तत्त्वार्थ सूत्र अ. 8 सू 9 से 17 183. पावश्यकनियुक्ति गाथा 275 184. आवश्यकनियुक्ति गाथा 258 [ 46 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org