Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 302
________________ द्वादशाङ्गगणिपिटक] [181 दृढ़ निश्चय वाले हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और समाधि-योग की जो पाराधना करने वाले हैं, मिथ्यादर्शन, माया और निदानादि शल्यों से रहित होकर शुद्ध निर्दोष सिद्धालय के मार्ग की ओर अभिमुख हैं, ऐसे महापुरुषों की कथाएं इस अंग में कही गई हैं। तथा जो संयम-परिपालन कर देवलोक में उत्पन्न हो देव-भवनों और देव-विमानों के अनुपम सुखों को और दिव्य, महामूल्य, उत्तम, भोगउपभोगों को चिर-काल तक भोग कर कालक्रम के अनुसार वहाँ से च्युत हो पुन: यथायोग्य मुक्ति के मार्ग को प्राप्त कर अन्तक्रिया से समाधिमरण के समय कर्म-वश विचलित हो गये हैं, उनको देवों और मनुष्यों के द्वारा धैर्य धारण कराने में कारणभूत, संबोधनों और अनुशासनों को, संयम के गुण और संयम से पतित होने के दोष-दर्शक दष्टान्तों को, तथा प्रत्ययों को, अर्थान बोधि के कारणभूत वाक्यों को सुनकर शुकपरिव्राजक आदि लौकिक मुनि जन भी जरा-मरण का नाश करने वाले जिन-शासन में जिस प्रकार से स्थित हुए, उन्होंने जिस प्रकार से संयम की आराधना की, पुनः देवलोक में उत्पन्न हुए, वहाँ से आकर मनुष्य हो जिस प्रकार शाश्वत सुख को और सर्वदुःख-विमोक्ष को प्राप्त किया उनकी, तथा इसी प्रकार के अन्य अनेक महापुरुषों की कथाएं इस अंग में विस्तार से कही गई हैं। ५३२–णायाधम्मकहासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीनो, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाप्रो संगहणीओ। ज्ञाताधर्मकथा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं। ५३३-से गं अंगट्ठयाए छठे अंगे, दो सुअक्खंधा, एगूणवीसं अज्झयणा / ते समासओ दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-चरिता य कप्पिया य / दस धम्मकहाणं वग्गा। तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई, एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाई, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइय-उवक्खाइयासयाई, एवमेव सप्पुवावरेणं अधुटाम्रो अक्खाइयाकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ। यह ज्ञाताधर्मकथा अंगरूप से छठा अंग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं उनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध (ज्ञात) के उन्नीस अध्ययन हैं। वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं चरित और कल्पित / (इनमें से प्रादि के दस अध्ययनों में आख्यायिका आदिरूप अवान्तर भेद नहीं हैं। शेष नौ अध्ययनों में से प्रत्येक में 540 आख्यायिकाएं प्रत्येक आख्यायिका में 500 उपाख्यायिकाएं और प्रत्येक उपाख्यायिका 500 आख्यायिका उपाख्यायिकाएं हैं। इन का कुल जोड (54045004 5004 9 = 1215000000) एक सौ इक्कीस करोड़ पचास लाख होता है।) धर्मकथानों के दश वर्ग हैं। उनमें से एक-एक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायिकाएं हैं, एक-एक आख्यायिका में पांच-पांच सौ उपाख्यायिकाएं हैं, एक-एक उपाख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएं हैं। इस प्रकार ये सब पूर्वापर से गुणित होकर [(5004 5004 500 = 125000000) बारह करोड़, पचास लाख होती हैं। धर्मकथा विभाग के दश वर्ग कहे गये हैं। अतः उक्त राशि को दश से गुणित करने पर (1250000004 10 = 1250000000) एक सौ पच्चीस करोड़ संख्या होती है। उसमें समान लक्षणवाली ऊपर कही पुनरुक्त (1215000000) कथानों को घटा देने पर (1250000000-1215000000 = 35000000) साढ़े तीन करोड़ अपुनरुक्त कथाएं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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