Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 357
________________ [समवायाङ्गसूत्र ६५८-तिविठे य [दुविठे य सयंभू पुरिसुत्तमे पुरिससोहे / तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कण्हे / / 54 / / अयले बिजये भद्दे सुप्पभे ये सुदंसणे / प्रानंदे नंदणे पउमे रामे यावि] अपच्छिमे / / 55 / / उनमें वासुदेवों के नाम इस प्रकार हैं-..-१. त्रिपृष्ठ, 2. द्विपृष्ठ, 3. स्वयम्भू, 4. पुरुषोत्तम, 5. पुरुषसिंह, 6. पुरुषपुंडरीक, 7. दत्त, 8. नारायण (लक्ष्मण) और 9. कृष्ण // 54 / / बलदेवों के नाम इस प्रकार हैं---१. अचल, 2. विजय, 3. भद्र, 4. सुप्रभ, 5. सुदर्शन, 6. आनन्द, 7. नन्दन, 8. पद्म और अन्तिम बलदेव राम / / 55 / / ६५९--एएसि णं णवण्हं बलदेव-वासुदेवाणं पुव्वभविया नव नामधेज्जा होत्था। तं जहा विस्सभूई पम्वयए धणदत्त समुद्ददत्त इसिवाले। पियमित्त ललियमिते पुणव्वसू गंगदत्ते य // 56 // एयाइं नामाइं पुन्वभवे प्रासि वासुदेवाणं / एत्तो बलदेवाणं जहक्कम कित्तइस्सामि / / 57 // विसनन्दो य सुबन्धू सागरदत्ते असोगललिए य / वाराह धम्मसेणे अपराइय रायललिए य // 58 / / इन नव बलदेवों और वासुदेवों के पूर्व भव के नौ नाम इस प्रकार थे--. 1. विश्वभूति, 2. पर्वत, 3. धनदत्त, 4. समुद्रदत्त, 5. ऋषिपाल, 6. प्रियमित्र, 7. ललितमित्र, 8. पुनर्वसु, 9. और गंगदत्त / ये वासुदेवों के पूर्व भव में नाम थे। इससे आगे यथाक्रम से बलदेवों के नाम कहूंगा / / 56-57 / / 1. विश्वनन्दी, 2. सुबन्धु, 3. सागरदत्त, 4. अशोक, 5. ललित, 6. वाराह, 7. धर्मसेन, 8. अपराजित और 9. राजललित // 5 // ६६०–एएसि नवण्हं बलदेव-वासुदेवागं पुव्वभविया नव धम्मायरिया होत्था। तं जहा-- संभूय सुभद्द सदसणे य सेयंस कण्ह गंगदत्ते य / सागर समुदनामे दुमसेणे य णवमए / / 59 // एए धम्मायरिया कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं / पुब्वभवे एयासि जत्थ नियाणाई कासी य // 60 // इन नव बलदेवों और वासुदेवों के पूर्वभव में नौ धर्माचार्य थे 1. संभूत, 2. सुभद्र, 3. सुदर्शन, 4. श्रेयान्स, 5. कृष्ण, 6. गंगदत्त, 7. सागर, 8. समुद्र और 9 द्रुमसेन / / 59 / / ये नवों ही प्राचार्य कीर्तिपुरुष वासुदेवों के पूर्वभव में धर्माचार्य थे। जहाँ वासुदेवों ने पूर्व भव में निदान किया था उन नगरों के नाम आगे कहते हैं-- // 6 // ६६१-एएसि नवण्हं वासुदेवाणं पुश्वभवे नव नियाणभूमीओ होत्था / तं जहा-- महरा य [कणगवत्थू सावत्थी पोयणं च रायगिहं। कायंदी कोसम्बी मिहिलपुरी] हत्थिणाउरं च // 61 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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