Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 324
________________ विविधविषयनिरूपण] [203 पण्णत्ता / तं जहा काले महाकाले रोरुए महारोरुए अपइट्ठाणे नामं पंचमे / ते णं निरया बट्टे य तंसा य / अहे खुरप्पसंठाणसंठिया जाव असुभा, नरगा, असुभाम्रो नरएस वेयणाओ। सातवीं पृथिवी में पृच्छा--[भगवन् ! सातवीं पृथिवी में कितना क्षेत्र अवगाहन कर कितने नारकावास हैं ? गौतम ! एक लाख साठ हजार योजन बाहल्यवाली सातवीं पृथिवी में ऊपर से साढ़े बावन हजार योजन अवगाहन कर और नीचे भी साढ़े बावन हजार योजन छोड़कर मध्यवर्ती तीन हजार योजनों में सातवीं पृथिवी के नारकियों के पांच अनुत्तर, बहुत विशाल महानरक कहे गये हैं / जैसे—काल, महाकाल, रोरुक, महारोरुक और पांचवां अप्रतिष्ठान नाम का नरक है / ये नरक वृत्त (गोल) और त्र्यन हैं, अर्थात् मध्यवर्ती अप्रतिष्ठान नरक गोल आकार वाला है और शेष चारों दिशावर्ती चारों नरक त्रिकोण आकार वाले हैं। नीचे तल भाग में वे नरक क्षुरप्र (खुरपा) के प्राकार वाले हैं।..."यावत् ये नरक अशुभ हैं और इन नरकों में अशुभ वेदनाएं हैं। 586 -केवइया णं भंते ! असुरकुमारावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमोसे णं रयणप्यभाए पुढवीए असीउत्तर जोयणसयसहस्स-बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठहत्तरि जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए चउट्टि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता / ते णं भवणा बाहिं बट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पोक्खरकण्णिमासंठाणसंठिया उक्किण्णंतर विउल-गंभीर-खाय-फलिहा अट्टालय-चरिय-दार-गोउर-कवाड-तोरणपडिदुवार-देसभागा जंत-मुसल-भुसंढि-सयग्घि-परिवारिया अउज्झा अडयालकोटरइया अडयालकयवणमाला लाउल्लोइयमहिया गोसीस-सरस-रत्तचंदण-दद्दर-दिण्णपंचंगुलितला कालागुरु-पवरकुदुरुक्क तुरुक्क उज्झंत-धूवमधमघेतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सप्पभा समरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / एवं जं जस्स कमती तं तस्स, जं जं गाहाहि भणियं तह चेव वण्णो / भगवन् ! असुरकुमारों के प्रावास (भवन) कितने कहे गये हैं ? गौतम ! इस एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्यवाली रत्नप्रभा पृथिवी में ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन कर और नीचे एक हजार योजन छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख अठहत्तर हजार योजन में रत्नप्रभा पृथिवी के भीतर असुरकुमारों के चौसठ लाख भवनावास कहे गये हैं। वे भवन बाहर गोल हैं, भीतर चौकोण हैं और नीचे कमल की कणिका के आकार से स्थित हैं। उनके चारों ओर खाई और परिखा' खुदी हुई हैं जो बहुत गहरी हैं / खाई और परिखा के मध्य में पाल बंधी हुई है। तथा वे भवन अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर, कपाट, तोरण, प्रतिद्वार, देश रूप भाग वाले हैं, यंत्र, मूसल, भुसुढी, शतघ्नी, इन शस्त्रों से संयुक्त हैं। शत्रुओं की सेनाओं से अजेय हैं। अड़तालीस कोठों से रचित, अड़तालीस वन-मालाओं से शोभित हैं। उनके भूमिभाग और भित्तियाँ उत्तम लेपों से लिपी और चिकनी हैं, गोशीर्षचन्दन और लालचन्दन के सरस सुगन्धित लेप से उन भवनों की भित्तियों पर पांचों अंगुलियों युक्त हस्ततल (हाथ) अंकित हैं / इसी 1. जो ऊपर-नीचे समान विस्तार वाली हो वह खाई, जो ऊपर चौड़ी और नीचे संकड़ी हो वह परिखा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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