Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 338
________________ विविधविषयनिरूपण] [217 पुद्गलों को प्राहार रूप से ग्रहण करते हैं , उन्हें अपने अवधिज्ञान से भी नहीं जानते हैं और न देखते हैं, इसी प्रकार असुरों से लेकर त्रोन्द्रिय तक के जोव भी अपने ग्रहण किये गये आहारपुद्गलों को नहीं जानते-देखते हैं। चतुरिन्द्रिय जीव अांख के होने पर भी मत्यज्ञानी होने से नहीं देखते और जानते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य जो अवधिज्ञानी हैं, वे पाहारपुद्गलों को जानते और देखते हैं / शेष जीव प्रक्षेपाहार को जानते हैं, लोमाहार को नहीं जानते देखते हैं। व्यन्तर और ज्योतिष्क देव अपने ग्रहण किये गये आहार-पुद्गलों को न जानते हैं और न देखते हैं। वैमानिक देवों में जो सम्यग्दृष्टि हैं वे अपने-अपने विशिष्टज्ञान से प्राहार-पुद्गलों को जानते और देखते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि वैमानिक देव नहीं जानते-देखते हैं। अध्यवसान द्वार की अपेक्षा नारक आदि जीवों के प्रशस्त और अप्रशस्त अध्यवसायस्थान असंख्यात होते हैं। सम्यक्त्व-मिथ्यात्व द्वार की अपेक्षा एकेन्द्रियों से लगाकर असंज्ञो पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव मिथ्यात्वी ही होते हैं, शेष जीवों में कितने ही सम्यक्त्वी होते हैं, कितने ही मिथ्यात्वी होते हैं और कितने ही सम्यग्मिथ्यात्वी भी होते हैं / यह सब जानने की सूचना सूत्रकार ने गाथा संख्या एक से की है। ६०९-नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा तओ निव्वत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामणया तो परियारणया तो पच्छा विकुठवणया? हंता गोयमा ! एवं / आहारपदं भाणियव्वं / भगवन् ! नारक अनन्तराहारी हैं ? (उपपात क्षेत्र में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही क्या अपने शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ? ) तत्पश्चात् निर्वर्तनता (शरीर की रचना) करते हैं ? तत्पश्चात् पर्यादानता (अंग-प्रत्यंगों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण) करते हैं ? तत्पश्चात् परिणामनता (गृहीत पुद्गलों का शब्दादि विषय के रूप में उपभोग) करते हैं ? तत्पश्चात् परिचारणा (प्रवीचार) करते हैं ? और तत्पश्चात् विकुर्वणा (नाना प्रकार की विक्रिया) करते हैं ? (क्या यह सत्य है ?) हां गौतम ! ऐसा ही है / (यह कथन सत्य है / ) यहां पर (प्रज्ञापना सूत्रोक्त) पाहार पद कह लेना चाहिए। ६१०-कइविहे णं भंते ! पाउगबंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! छविहे आउगबंधे पन्नत्ते / तं जहा–जाइनामनिहत्ताउए गतिनामनिहत्ताउए ठिइनामनिहत्ताउए पएसनामनिहत्ताउए अणुभागनामनिहत्ताउए ओगाहणानामनिहत्ताउए / भगवन् ! आयुकर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है। गौतम ! अायुकर्म का बन्ध छह प्रकार का कहा गया है / जैसे-जातिनामनिधत्तायुष्क, गतिनामनिधत्तायुष्क, स्थितिनामनिधत्तायुष्क, प्रदेशनामनिधत्तायुष्क, अनुभागनामनिधत्तायुष्क और अवगाहनानामनिधत्तायुष्क / विवेचन-प्रत्येक प्राणी जिस समय आगामी भव की आयु का बन्ध करता है, उसी समय उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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