Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 349
________________ 228] [समवायाङ्गसूत्र एयाओ सीआप्रो सब्वेसि चेव जिणवरिदाणं / सव्वजगवच्छलाणं सव्वोउयसुभाए छायाए // 18 // इन चौवीस तीर्थंकरों की चौवीस शिविकाएं (पालकियां) थीं। (जिन पर विराजमान होकर तीर्थकर प्रव्रज्या के लिए वन में गए। जैसे 1. सुदर्शना शिविका, 2. सुप्रभा, 3. सिद्धार्था, 4. सुप्रसिद्धा, 5. विजया, 6. वैजयन्ती, 7. जयन्ती, 8. अपराजिता, 9. अरुणप्रभा, 10. चन्द्रप्रभा, 11. सूर्यप्रभा, 12. अग्निप्रभा, 13. सुप्रभा, 14. विमला, 15. पंचवर्णा, 16. सागरदत्ता, 17. नागदत्ता, 18. अभयकरा, 19. नितिकारा, 20. मनोरमा, 21. मनोहरा, 22. देवकुरा, 23. उत्तरकुरा और 24. चन्द्रप्रभा / ये सभी शिविकाएं विशाल थीं / / 15-17 || सर्वजगत-वत्सल सभी जिनवरेन्द्रों की ये शिविकाएं सर्व ऋतुओं में सूखदायिनी उत्तम और शुभ कान्ति से युक्त होती हैं / / 18 / / ६३८-पुब्वि प्रोक्खित्ता माणुसेहि सा हट्ट (4) रोमकूवेहि / पच्छा वहंति सीयं असुरिंद-सुरिद-नागिदा // 19 // चल-चवल-कुडलधरा सच्छंदविउवियाभरणधारी। सुर-असुर-वंदित्राणं वहंति सी जिणिदाणं // 20 // पुरो वहंति देवा नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि / पच्चच्छिमेण असुरा गरुला पुण उत्तरे पासे // 21 // जिन-दीक्षा ग्रहण करने से लिए जाते समय तीर्थंकरों की इन शिविकाओं को सबसे पहिले हर्ष से रोमाञ्चित मनुष्य अपने कन्धों पर उठाकर ले जाते हैं। पीछे असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र उन शिविकाओं को लेकर चलते हैं / / 19 / / चंचल चपल कुण्डलों के धारक और अपनी इच्छानुसार विक्रियामय आभूषणों को धारण करने वाले वे देवगण सुर-असुरों से वन्दित जिनेन्द्रों की शिविकाओं को वहन करते हैं / / 20 / / इन शिविकाओं को पूर्व की ओर [वैमानिक] देव, दक्षिण पार्श्व में नागकुमार, पश्चिम पार्श्व में असुरकुमार और उत्तर पार्श्व में गरुड़कुमार देव वहन करते हैं // 21 // ६३९-उसभो य विणीयाए बारवईए अरिटवरणेमी। अवसेसा तित्थयरा निक्खंता जम्मभूमीसु // 22 // ऋषभदेव विनीता नगरी से, अरिष्टनेमि द्वारावती से और शेष सर्व तीर्थंकर अपनी-अपनी जन्मभूमियों से दीक्षा-ग्रहण करने के लिए निकले थे / / 22 // ६४०-सव्वे वि एगदूसेण [णिग्गया जिणवरा चउव्वीसं / ___ण य णाम अण्णलिगे ण य गिहिलिगे कुलिगे व // 23 // ] सभी चौबीसों जिनवर एक दूष्य (इन्द्र-समर्पित दिव्य वस्त्र) से दीक्षा ग्रहण करने के लिए निकले थे / न कोई अन्य पाखंडी लिंग से दीक्षित हुआ, न गृहिलिंग से और न कुलिंग से दीक्षित हुआ। (किन्तु सभी जिन-लिंग से ही दीक्षित हुए थे।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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