Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 335
________________ 214] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन--सूत्रकार ने जिस अवधिज्ञान-पद के जानने की सूचना की है, वह इस प्रकार हैअवधिज्ञान का भेद, विषय, संस्थान, पाभ्यन्तर, बाह्य, देशावधि, वृद्धि, हानि, प्रतिपाति और अप्रतिपाति इन दश द्वारों से वर्णन किया गया है। सूत्रकार ने अवधिज्ञान के दो भेद कहे हैं, उनमें से भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकों को होता है, तथा क्षायोपश मिक– गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों को होता है / अवधिज्ञान का विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का है। इनमें से द्रव्य की अपेक्षा अवधिज्ञान जघन्यरूप से तेजस वर्गणा और भाषा वर्गणा के अग्रहण-प्रायोग्य (दोनों के बीच के) द्रव्यों को जानता है, तथा उत्कृष्ट रूप से सर्व रूपी द्रव्यों को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र को (क्षेत्र में स्थित रूपी द्रव्यों को) जानता है और उत्कृष्ट लोकप्रमाण अलोक के असंख्यात खंडों को जानता है। काल की अपेक्षा प्रावलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण अतीत और अनागत काल को (कालवर्ती रूपी द्रव्यों को जानता है। तथा उत्कृष्ट रूप से असंख्यात उत्सपिणी प्रमाण अतीत अनागत काल को जानता है। भाव की अपेक्षा जघन्यरूप से प्रत्येक पुद्गल द्रव्य के रूपादि चार गुणों को जानता है और उत्कृष्ट रूप से प्रत्येक रूपी द्रव्य के असंख्यात गुणों को, तथा सर्वरूपी द्रव्यों की अपेक्षा अनन्त गुणों को जानता है। ___ संस्थान की अपेक्षा नारकों के अवधिज्ञान का प्राकार तप्र (डोंगी) के समान आकार वाला, भवनवासी देवों का पल्य के प्राकार का, व्यन्तर देवों का पटह के आकार का. ज्योतिष्य झालर के प्राकार, कल्पोपन्न देवों का मृदंग के आकार, ग्रेवेयक देवों का पुष्पावली-रचित शिखर वाली चंगेरी के समान, तथा अनुत्तर देवों का कन्याचोलक के समान होता है / तिर्यंचों और मनुष्यों के अवधिज्ञान का आकार अनेक प्रकार का होता है। ग्राभ्यन्तर द्वार की अपेक्षा कौन-कौन से जीव अपने अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र के भीतर रहते हैं, इसका विचार किया जाता है। बाह्य द्वार की अपेक्षा कौन-कौन से जीव अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र के बाहर रहते हैं, इसका विचार किया जाता है। जैसे-नारक देव और तीर्थकर अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र भीतर होते हैं। शेष जीव बाह्य अवधिज्ञानवाले भी होते हैं और प्राभ्यन्तर अवधिज्ञान वाले भी होते हैं। देशावधि द्वार की अपेक्षा देवों, नारकों और तिर्यंचों को देशावधिज्ञान ही होता है, क्योंकि वे अवधिज्ञान के विषयभूत द्रव्यों के एक देश को ही जानते हैं / किन्तु मनुष्यों को देशावधि भी होता और सर्वावधिज्ञान भी होता है। यहां इतना विशेष ज्ञातव्य है कि सर्वावधिज्ञान तद्भव मोक्षगामी परम संयत के ही होता है, अन्य के नहीं / वृद्धि-हानि द्वार की अपेक्षा मनुष्यों और तिर्यचों का अवधिज्ञान परिणामों की विशुद्धि के समय बढ़ता है और संक्लेश के समय घटता भी है। वृद्धिरूप अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें भाग से बढ़कर लोकाकाशप्रमित क्षेत्र तक बढ़ता जाता है / इसी प्रकार संक्लेश को वृद्धि होने पर उत्तरोत्तर घटता जाता है। किन्तु देवों और नारकों का अवधिज्ञान जिस परिमाण में उत्पन्न होता है, उतने ही परिमाण में प्रवस्थित रहता है, घटता-बढ़ता नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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