Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 334
________________ विवधिविषयनिरूपण] [213 बताई गई है, उतनी ही उनके तेजस और कार्मण शरीर की अवगाहना होती है। किन्तु मारणान्तिक समुद्घात या मरकर उत्पत्ति की अपेक्षा एकेन्द्रियों के प्रदेशों की लम्बाई जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कर्ष से ऊपर और नीचे लोकान्त तक होती है, क्योंकि एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक आदि जीव मर कर नीचे सातवीं पृथिवी में और ऊपर ईषत्प्राग्भार नामक पृथिवी में उत्पन्न हो सकते हैं। द्वीन्द्रियादि जीव उत्कर्ष से तिर्यग्लोक के अन्त तक मर कर उत्पन्न हो सकते हैं, अतः उनके तं जस-कार्मण शरीर की अवगाहना उतनी ही जाननी चाहिए। नारक को मरण की अपेक्षा जघन्य अवगाहना एक हजार योजन कही गई है, क्योंकि प्रथम नरक का नारकी मरकर हजार योजन झाझेरी विस्तृत पाताल कलश की भित्ति को भेदकर उसमें मत्स्यरूप से उत्पन्न हो जाता है। उत्कर्ष से सातवें नरक का नारकी मरकर ऊपर लबण समुद्रादि में मत्स्यरूप से उत्पन्न हो सकता है। तिर्यक् स्वयम्भूरमण समुद्र तक, तथा ऊपर पंडक वन की पुष्करिणी में भी मत्स्यरूप से उत्पन्न हो सकता है। मनुष्य मरकर सर्व ओर लोकान्त तक उत्पन्न हो सकता है, अतः उसके तैजस और कार्मणशरीर की अवगाहना उतनी लम्बी जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ईशानकरूप के देवों के दोनों शरीरों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि ये देव मर कर अपने ही विमानों में वहीं के वहीं एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक जीवों में उत्पन्न हो सकते हैं / उनकी उत्कृष्ट अवगाहना नीचे तीसरी पृथिवी तक, तिरछी स्वयम्भूरमण समुद्र की बाहिरी वेदिका के अन्त तक और ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथिवी के अन्त तक लम्बी जानना चाहिए / सनत्कुमार कल्प से लेकर सहस्रार कल्प तक के देवों के तेजस-कार्मण शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कही गई है. क्योंकि ये देव पंडक वनादि की पुष्करिणियों में स्नान करते समय मरण हो जाने से वहीं मत्स्यरूप से उत्पन्न हो जाते हैं। उत्कृष्ट अवगाहना नीचे महापाताल कलशों के द्वितीय त्रिभाग तक जानना चाहिए, क्योंकि वहां जल का सद्भाव होने से वे मरकर मत्स्यरूप से उत्पन्न हो सकते हैं / तिरछे स्वयम्भूरमण समुद्र के अन्त तक अवगाहना जाननी चाहिए। ऊपर अच्युत स्वर्ग तक अवगाहना कही गई है, क्योंकि सनत्कुमारादि स्वर्गों के देव किसी सांगतिक देव के प्राश्रय से अच्युत स्वर्ग तक जा सकते हैं, और प्रायु पूर्ण हो जाने पर वहां से मरकर यहां मध्य लोक में उत्पन्न हो सकते हैं। पानत यादि चार स्वर्गों के देवों की जघन्य अवगाहना अंगल के असंख्यातवें भाग कही गई है, क्योंकि वहां का देव यदि यहां मध्य लोक में आया हो और यहीं मरण हो जाय तो वह यहीं किसी मनुष्यनी के गर्भ में उत्पन्न हो सकता है। उक्त देवों की उत्कृष्ट अवगाहना नीचे मनुष्य लोक तक जानना चाहिए, क्योंकि अन्तिम चार स्वों के देव मरकर मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं / वेयक और अनुत्तर विमानवासी देवों की जघन्य अवगाहना विजया पर्वत की विद्याधर श्रेणी तक जानना चाहिए। उत्कृष्ट अवगाहना नीचे अधोलोक के ग्रामों तक, तिरछी मनुष्य लोक और ऊपर अपनेअपने विमानों तक कही गई है। ६०४--कइविहे गं भंते ! प्रोही पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नता-भवपच्चइए य खओवसमिए य / एवं सव्वं ओहिपदं भाणियव्वं / भगवन् ! अवधिज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? / गौतम ! अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-भवप्रत्यय अवधिज्ञान और क्षायोपशमिक अवधिज्ञान / इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र का सम्पूर्ण अवधिज्ञान पद कह लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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