________________ द्वादशाङ्ग गणिफ्टिक] 179 बुद्धि-बद्धणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागरणाणं दंसणाओ सुयस्थबहुविहप्पगारा सोसहियत्था य गुणमहत्था। व्याख्याप्रज्ञप्ति में नाना प्रकार के देवों, नरेन्द्रों, राषियों और अनेक प्रकार के संशयों में पड़े हुए जनों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों का और जिनेन्द्र देव के द्वारा भाषित उत्तरों का वर्णन किया गया है। तथा द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्याय, प्रदेश-परिमाण, यथास्थित भाव, अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण, सुनिपुण-उपक्रमो के विविध प्रकारों के द्वारा प्रकट रूप से प्रकाशित करने वाले, लो प्रकाशक, विस्तृत संसार-समुद्र से पार उतारने में समर्थ, इन्द्रों द्वारा संपूजित, भव्य जन प्रजा के, अथवा भव्य जन-पदों के हृदयों को अभिनन्दित करने वाले, तमोरज का विध्वंसन करने वाले, सुदृष्ट (सुनिर्णीत) दीपक स्वरूप, ईहा, मति और बुद्धि को बढ़ाने वाले ऐसे अन्यून (पूरे) छत्तीस हजार व्याकरणों (प्रश्नों के उत्तरों) को दिखाने से यह ब्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्रार्थ के अनेक प्रकारों का प्रकाशक है, शिष्यों का हित-कारक है और गुणों से महान् अर्थ से परिपूर्ण है। ५२८-वियाहस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुप्रोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीग्रो, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ। ___ व्याख्याप्रज्ञति की वाचनाएं परीत हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियां संख्यात हैं, वेढ (छन्दोविशेष) संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं और नियुक्तियाँ संख्यात हैं। ५२९-से गं अंगट्टयाए पंचमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, एगे साइरेगे अज्झयणसते, दस उद्देसगसहस्साई, दस समुद्देसगसहस्साई, छत्तीसं वागरणसहस्साई चउरासीइं पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता। संखेज्जाइं अक्खराइं, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परिता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जति, परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं प्राया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया प्राधविज्जति०। से तं वियाहे 5 / यह व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग रूप से पाँचवाँ अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, सौ से कुछ अधिक अध्ययन हैं, दश हजार उद्देशक हैं, दश हजार समुद्देशक हैं, छत्तीस हजार प्रश्नों के उत्तर हैं। पद-गणना की अपेक्षा चौरासी हजार पद हैं। संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त-भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है / इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह पांचवें व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग का परिचय है 5 / विवेचन-प्राचारांग से लेकर समवायांग तक पदों का परिमाण दुगुना-दुगुना है किन्तु व्याख्याप्रज्ञप्ति के पदों में द्विगुणता का आश्रय नहीं लिया गया है / किन्तु यहाँ चौरासी हजार पदों का उल्लेख स्पष्ट है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org