Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 308
________________ द्वादशाक्ष गणिपिटक] [187 जाने पर शुभाशुभ फल बतलाती हैं, वे प्रश्न-विद्याएं कहलाती हैं। जो विद्याएं मंत्र-विधि से जाप किये जाने पर बिना पूछे ही शुभाशुभ फल को कहती हैं, वे अप्रश्न-विद्याएं कहलाती हैं। तथा जो विद्याएं कुछ प्रश्नों के पूछे जाने पर और कुछ के नहीं पूछे जाने पर भी शुभाशुभ फल को कहती हैं, वे प्रश्नाप्रश्न विद्याएं कहलाती हैं / इन तीनों प्रकार की विद्याओं का प्रश्नव्याकरण अंग में वर्णन किया गया है / तथा स्तंभन, वशीकरण, उच्चाटन आदि विद्याएं विद्यातिशय कहलाती हैं / एवं विद्यानों के साधनकाल में नागकुमार, सुपर्ण कुमार तथा यक्षादिकों के साथ साधक का जो दिव्य तात्त्विक वार्तालाप होता है वह दिव्यसंवाद कहा गया है। इन सबका इस अंग में निरूपण किया गया है। ५४७---पण्हावागरणदसासु णं ससमय-परसमय पण्णवय-पत्तेप्रबद्ध-विविहत्थभासाभासियागं अइसय गुण-उवसम-णाणप्पगार-आयरियभासियागं वित्थरेणं विरमहेसीहि विविहवित्थरभासियाणं च जगहियाणं अदागंगुट्ठ-बाहु-असि-मणि-खोम-प्राइच्चभासियाणं विविहमहापसिणविज्जा-मणपसिणविज्जा-देवयफ्योग-पहाण-गुणप्पगासियाणं सब्भूयदुगुणप्पभाव-नरगणमइविम्हयकराणं अइसयमईयकालसमय-दम-सम-तित्थकरुत्तमस्म ठिइकरणकारणाणं दुरहिगम-दुरवगाहस्स सव्वसध्वन्नुसम्मअस्स अबुहजण-विबोहण करस्स पच्चक्खयपच्चयकराणं पव्हाणं विविहगुणमहत्था जिणवरप्पणीया आघविज्जति / प्रश्नव्याकरणदशा में स्वसमय-परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येकबुद्धों के विविध अर्थों वाली भाषानों द्वारा कथित वचनों का प्रामों षधि आदि अतिशयों, ज्ञानादि गुणों और उपशम भाव के प्रतिपादक नाना प्रकार के प्राचार्यभाषितों का, विस्तार से कहे गये वीर महर्षियों के जगत् हितकारी अनेक प्रकार के विस्तृत सुभाषितों का, आदर्श (दर्पण) अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, क्षौम (वस्त्र) और सूर्य आदि के आश्रय से दिये गये विद्या-देवताओं के उत्तरों का इस अंग में वर्णन है। अनेक महाप्रश्नविद्याएं वचन से ही प्रश्न करने पर उत्तर देती हैं, अनेक विद्याएं मन से चिन्तित प्रश्नों का उत्तर देती हैं, अनेक विद्याएं अनेक अधिष्ठाता देवताओं के प्रयोग-विशेष की प्रधानता से अनेक अर्थों के संवादक गुणों को प्रकाशित करती हैं, और अपने सद्भूत (वास्तविक) द्विगुण प्रभावक उत्तरों के द्वारा जन समुदाय को विस्मित करती हैं। उन विद्याओं के चमत्कारों और सत्य वचनों से लोगों के हृदयों में यह दृढ़ विश्वास उत्पन्न होता है कि अतीत काल के समय में दम और शम के धारक, अन्य मतों के शास्तानों से विशिष्ट जिन तीर्थकर हुए हैं और वे यथार्थवादी थे, अन्यथा इस प्रकार के सत्य विद्यामंत्र संभव नहीं थे, इस प्रकार संशयशोल मनुष्यों के स्थिरीकरण के कारणभूत दुरभिगम (गम्भीर) और दुरवगाह (कठिनता से अवगाहन-करने के योग्य) सभी सर्वज्ञों के द्वारा सम्मत, अबुध (अज्ञ) जनों को प्रबोध करने वाले, प्रत्यक्ष प्रतीति-कारक प्रश्नों के विविध गुण और महान् अर्थ वाले जिनवर-प्रणीत उत्तर इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं, और उपदर्शित किये जाते हैं। ५४८–पण्हावागरणेसु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखज्जा सिलोगा, संखेज्जानो निज्जुत्तीग्रो, संखेज्जाओ संगहणीओ। प्रश्नव्याकरण अंग में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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