Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 321
________________ 200] [ समवायाङ्गसूत्र ५७९-[जीवरासी दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–संसारसमावन्नगा य असंसारसमावन्नगा य / तत्थ असंसारसमावन्नगा दुविहा पण्णत्ता...''जाव..] जीव-राशि क्या है ? [जीव-राशि दो प्रकार की कही गई है--संसारसमापन्नक (संसारी जीव) और असंसार समापन्नक (मुक्त जीव) / इस प्रकार दोनों राशियों के भेद-प्रभेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार अनुत्तरोपपातिकसूत्र तक जानना चाहिए। ५८०-से कि तं अगुत्तरोववाइया? अणुत्तरोववाइया पंचविहा पन्नता। तं जहा-विजयवेजयंत-जयंत-अपराजित-सव्वट्ठसिद्धिआ। से तं अणुत्तरोववाइया। से तं चिदियसंसारसमावण्णजीवरासी। वे अनुत्तरोपपातिक देव क्या हैं ? अनुत्तरोपपातिक देव पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-विजय-अनुत्तरोपपातिक, वैजयन्तअनुत्तरोपपातिक, जयन्त-अनुत्तरोपपातिक, अपराजित-अनुत्तरोपपातिक और सर्वार्थसिद्धिक अनुत्तरोपपातिक / ये सब अनुत्तरोपपातिक संसार-समापन्नक जीवराशि हैं / यह सब पंचेन्द्रियसंसार-समापन्न-जीवराशि हैं / ५८१-दुविहा जेरइया पण्णत्ता / तं जहा--पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / एवं दंडओ भाणियच्चो जाव वेमाणिय त्ति। नारक जीव दो प्रकार के हैं -पर्याप्त और अपर्याप्त / यहां पर भी [प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार] वैमानिक देवों तक अर्थात् नारक, असुरकुमार, स्थावरकाय, द्वीन्द्रिय प्रादि, मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक का सूत्र-दंडक कहना चाहिए, अर्थात् वर्णन समझ लेना चाहिए। ५८२-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए केवइयं खेत्तं प्रोगाहेत्ता केवइया णिरयावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्स-बाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेडा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अटुसत्तरि जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पृढवोए रइयाणं तीसं णिरयावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खाया। ते णं गिरयावासा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा जाव असुभा णिरया, असुभाओ णिरएसु वेयणायो / एवं सत्त वि भाणियव्याओ जं जासु जुज्जइ [भगवन् ] इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितना क्षेत्र अवगाहन कर कितने नारकावास कहे गये हैं ? __गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथिवी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन कर, तथा सबसे नीचे के एक हजार योजन क्षेत्र को छोडकर मध्यवर्ती एक लाख अठहत्तर हजार योजन वाले रत्नप्रभा पृथिवी के भाग में तीस लाख नारकावास हैं। वे नारकावास भीतर की ओर गोल और बाहर की अोर चौकोर हैं यावत् वे नरक अशुभ हैं और उन नरकों में अशुभ वेदनाएं हैं। इसी प्रकार सातों ही पृथिवियों का वर्णन जिनमें जो युक्त हो, करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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