Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 311
________________ 190] [समवायाङ्गसूत्र मई पयच्छिऊणं पयोगसुद्धाई जह य नित्तिति उ बोहिलाभं जह य परित्तीकरेंति नर-नरय-तिरियसुरगमण-विपुलपरियट्ट-अरति-भय-विसाय-सोग-मिच्छत्तसेलसंकडं अण्णाणतमंधकार-चिक्खिल्लसुदुत्तारं जर-मरण-जोणिसंखुभियचवकवालं सोलसकसाय-सावय-पयंडचंडं अणाइअं अणवदग्गं संसारसागरमिणं जह य णिबंधति पाउगं सुरगणेसु, जह ग अणुभवंति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि / ततो य कालंतरे चुआणं इहेव नरलोगमागयाणं आउ-वयु-पुण्ण-रूख-जाति-कुल-जम्म-आरोग्ग-बुद्धि-मेहाविसेसा मित्त-जण-सयण-धण-धण्ण-विभव-समिद्धसार-समुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागोत्तमेसु अणुवरय-परंपराणुबद्धा। असुभाणं सुभाणं चेव कम्माणं भासिआ बहुविहा विवागा विवागसुयम्भि भगवया जिणवरेण संवेगकरणत्था, अन्नवि य एवमाइया बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आधविज्जति / अब सुख-विपाकों का वर्णन किया जाता है जो शील, (ब्रह्मचर्य या समाधि) संयम, नियम (अभिग्रह-विशेष), गुण (मूल गुण और उत्तर गुण) और तप (अन्तरंग-बहिरंग) के अनुष्ठान में संलग्न हैं, जो अपने प्राचार का भली-भांति से पालन करते हैं, ऐसे साधुजनों में अनेक प्रकार की अनुकम्पा का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति तीनों ही कालों में विशुद्ध बुद्धि रखते हैं अर्थात् यतिजनों को आहार दूगा, यह विचार करके जो हर्षानुभव करते हैं, देते समय और देने के पश्चात् भी हर्ष मानते हैं, उनको अति सावधान मन से हितकारक, सुखकारक, निःश्रेयसकारक उत्तम शुभ परिणामों से प्रयोग-शुद्ध (उद्गमादि दोषों से रहित) भक्त-पान देते हैं, वे मनुष्य जिस प्रकार पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं, बोधि-लाभ को प्राप्त होते हैं और नर, नारक, तिर्यंच एवं देवगति-गमन सम्बन्धी अनेक परावर्तनों को परीत (सीमित अल्प) करते हैं, तथा जो अरति, भय, विस्मय, शोक और मिथ्यात्वरूप शैल (पर्वत) से संकट (संकीर्ण) है, गहन अज्ञान-अन्धकार रूप कीचड़ से परिपूर्ण होने से जिसका पार उतरना अति कठिन है, जिसका चक्रवाल (जल-परिमंडल) जरा, मरण योनिरूप मगर-मच्छों से क्षोभित हो रहा है, जो अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायरूप श्वापदों (खूखार हिंसक प्राणियों) से अति प्रचण्ड अतएव भयंकर है, ऐसे अनादि अनन्त इस संसार-सागर को वे जिस प्रकार पार करते हैं, और जिस प्रकार देव-गणों में आयु बांधते-देवायु का बंध करते हैं, तथा जिस प्रकार सुर-गणों के अनुपम विमानोत्पन्न सुखों का अनुभव करते हैं, तत्पश्चात कालान्तर में वहाँ से च्यूत होकर इसी मनुष्यलोक में आकर दीर्घ आयु, परिपूर्ण शरीर, उत्तम रूप, जाति कुल में जन्म लेकर आरोग्य, बुद्धि, मेधा-विशेष से सम्पन्न होते हैं, मित्रजन, स्वजन, धन, धान्य और वैभव से समृद्ध, एवं सारभूत सुखसम्पदा के समूह से संयुक्त होकर बहुत प्रकार के काम-भोग-जनित, सुख-विपाक से प्राप्त उत्तम सुखों की अनुपरत (अविच्छिन्न) परम्परा से परिपूर्ण रहते हुए सुखों को भोगते हैं, ऐसे पुण्यशाली जोवों का इस सुख-विपाक में वर्णन किया गया है। इस प्रकार अशुभ और शुभ कर्मों के बहुत प्रकार के विपाक (फल) इस विपाकसूत्र में भगवान् जिनेन्द्र देव ने संसारी जनों को संवेग उत्पन्न करने के लिए कहे हैं। इसी प्रकार से अन्य भी बहुत प्रकार की अर्थ-प्ररूपणा विस्तार से इस अंग में की गई है। 555. -विवागसुयस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा, संखेज्जानो पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जायो निज्जुत्तीओ संखेज्जारो संगहणीयो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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