Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 307
________________ 186] [ समवायाङ्गसूत्र हुए जिस प्रकार से अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं और वहां जैसे अनुपम विषय-सौख्य को भोगते हैं, उस सब का अनुत्तरोपपातिकदशा में वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् वहां से च्युत होकर वे जिस प्रकार से संयम को धारण कर अन्तक्रिया करेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे, इन सब का, तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थों का विस्तार से इस अंग में वर्णन किया गया है। ५४४-अणुत्तरोववाइयदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाम्रो संगहणोओ। अनुत्तरोपपातिकदशा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं। ५४५--से गं अंगठ्ठयाए नवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, तिन्नि वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं, पयसयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जाणि अक्खराणि, अजंता गमा, प्रणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आविज्जंति पण्णविज्जंति परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति। से एवं प्राया, से एवं गाया एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जति० / से तं अणुत्तरोववाइयदसानो 9 / ___ यह अनुत्तरोपपातिकदशा अंगरूप से नौवां अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, तीन वर्ग हैं, दश उद्देशन-काल हैं, दश समुद्देशन-काल हैं, तथा पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं।' इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परिमित त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं / ये सब शाश्वत कृत, निबद्ध, निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं, और उपदर्शित किये जाते हैं / इस अग के द्वारा प्रात्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह नवें अनुत्तरोपपातिकदशा अंग का परिचय है। ५४६-से कि तं पण्हावागरणाणि ? पण्हावागरणेसु अठुत्तरं पसिणसयं अठ्ठत्तरं अपसिणसयं अठ्ठत्तरं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग-सुवन्न हि सद्धि दिवा संवाया आविज्जति / प्रश्नव्याकरण अंग क्या है— इस में क्या वर्णन है ? प्रश्नव्याकरण अंग में एक सौ आठ प्रश्नों, एक सौ आठ अप्रश्नों और एक सौ पाठ प्रश्नाप्रश्नों को, विद्यानों के अतिशयों को तथा नागों-सुपर्णों के साथ दिव्य संवादों को कहा गया है। विवेचन-अंगुष्ठप्रश्न आदि मंत्रविद्याएं प्रश्न कहलाती हैं / जो विद्याएं जिज्ञासु के द्वारा पूछे 1. टीकाकार का कथन है-वर्ग अध्ययनों का समूह कहलाता है। वर्ग में अध्यबन दस हैं और एक वर्ग का उद्देशन एक साथ होता है। अतएव इसके उद्देशनकाल तीन ही होने चाहिए / नन्दीसूत्र में भी तीन का ही उल्लेख है। किन्तु यहाँ दश उद्देशनकाल कहने का अभिप्राय क्या है, समझ में नहीं पाता / —सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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