Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 301
________________ 180) [समवायाङ्गसूत्र ५३०-से कि तं णायाधम्मकहाओ ! णायाधम्मकहासु णं णायाणं णगराई उज्जाणाई चेइआई वणखंडा रायाणो 5, अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहानो इहलोइय-परलोइअइड्ढोविसेसा 10, भोयपरिच्चाया पव्वज्जापो सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई परियागा 15, सलेहणाम्रो तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायायाइं 20, पुणबोहिलाभा अंतकिरियानो 22 य आघविज्जंति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति / ज्ञाताधर्मकथा क्या है इसमें क्या वर्णन है ? ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञात अर्थात् उदाहरणरूप मेघकुमार आदि पुरुषों के 1 नगर, 2 उद्यान, 3 चैत्य, 4 वनखण्ड, 5 राजा, 6 माता-पिता, 7 समवसरण, 8 धर्माचार्य, 9 धर्मकथा, 10 इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, 11 भोग-परित्याग, 12 प्रव्रज्या, 13 श्रुतपरिग्रह, 14 तप-उपधान, 15 दीक्षापर्याय, 16 संलेखना, 17 भक्तप्रत्याख्यान, 18 पादपोपगमन, 19 देवलोक-गमन, 20 सुकुल में पुनर्जन्म, 21 पुनः बोधिलाभ और 22 अन्तक्रियाएं कही जाती हैं। इनकी प्ररूपणा की गई हैं, दर्शायी गई हैं, निदर्शित की गई हैं और उपदर्शित की गई हैं। ५३१–नायाधम्मकहासु णं पन्वइयाणं विणय-करण-जिणसामिसासणवरे संजमपइष्णपालणधिइ-मइ-ववसायदुब्बलाणं 1, तवनियम-तवोवहाण-रण-दुद्धर-भर-भग्गा-णिसहय-णिसिटाणं 2, घोरपरोसह-पराजियाणंऽसहपारद्ध-रुद्धसिद्धालय-महग्गा-निग्गयाणं 3, विसयसुह-तुच्छ-पासावस-दोसमुच्छियाणं 4, विराहिय-चरित्त-नाण-दसण-अइगुण-विविहप्पयार-निस्सारसुन्नयाणं 5, संसार-अपार-दुक्खदुग्गइ-भवविविह-परंपरापवंचा 6. धीराण य जियपरिसह-कसाय-सेण्ण-धिइ-धणिय-संजम-उच्छाहनिच्छियाणं 7, पाराहियनाण-दसण-चरित्तजोग-निस्सल्ल-सुद्धसिद्धालय-मग्गमभिमुहाणं सुरभवणविमाणसुक्खाई अणोवमाई भुत्तूण चिरं च भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि महरिहाणि / ततो य कालक्कमचुयाण जह य पुणो लद्धसिद्धिमग्गाणं अंतकिरिया। चलियाण य सदेव-माणुस्सधीर-करणकारणाणि बोधण अणुसासणाणि गुण-दोस दरिसणाणि / विद्रुते पच्चये य सोऊण लोगमुणिणो जह य ठियासासणम्मि जर-मरण-नासणकरे पाराहिअसंजमा य सुरलोगपडिनियत्ता प्रोवेन्ति जह सासयं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं, एए अण्णे य एवमाइअत्था वित्थरेण य / ज्ञाताधर्मकथा में प्रव्रजित पुरुषों के विनय-करण-प्रधान, प्रवर जिन-भगवान् के शासन की संयम-प्रतिज्ञा के पालन करने में जिनकी धृति (धीरता), मति (बुद्धि) और व्यवसाय (पुरुषार्थ) दुर्बल है, तपश्चरण का नियम और तप का परिपालन करनेरूप रण (युद्ध) के दुर्धर भार को वहन करने से भग्न हैं-पराङ मुख हो गये हैं, अत एव अत्यन्त अशक्त होकर संयम-पालन करने का संकल्प छोड़कर बैठ गये हैं, घोर परीषहों से पराजित हो चुके हैं इसलिए संयम के साथ प्रारम्भ किये गये मोक्ष-मार्ग के अवरुद्ध हो जाने से जो सिद्धालय के कारणभूत महामूल्य ज्ञानादि से पतित हैं, जो इन्द्रियों के तुच्छ विषय-सुखों की प्राशा के वश होकर रागादि दोषों से मूच्छित हो रहे हैं, चारित्र, ज्ञान, दर्शन स्वरूप यात-गुणों से और उनके विविध प्रकारों के प्रभाव से जो सर्वथा नि:सार और शून्य हैं, जो संसार के अपार दुःखों की ओर नरक, तिर्यंचादि नाना दुर्गतियों की भव-परम्परा से प्रपंच में पड़े हुए हैं, ऐसे पतित पुरुषों की कथाएं हैं। तथा जो धीर वीर हैं, परीषहों और कषायों की सेना को जीतने वाले हैं, धैर्य के धनी हैं, संयम में उत्साह रखने और बल-वीर्य के प्रकट करने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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