Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 298
________________ द्वादशाङ्गगणिपिटक] [177 द्रव्य-दृष्टि से सर्व भाव शाश्वत हैं, पर्याय-दृष्टि से अनित्य हैं, निबद्ध हैं, निकाचित (दृढ़ किये गये) हैं, जिन-प्रज्ञप्त हैं। इन सब भावों का इस अंग में कथन किया जाता है, प्रज्ञापन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है, निदर्शन किया जाता है और उपदर्शन किया जाता है। इस अंग का अध्येता आत्मा ज्ञाता हो जाता है, विज्ञाता हो जाता है / इस प्रकार चरण और करण प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है / यह तीसरे स्थानाङ्ग का परिचय है // 3 // ५२२-से कि तं समवाए ? समवाए णं ससमया सूइज्जंति, परसमया सूइज्जंति, ससमयपरसमया सूइज्जति / जीवा सूइज्जंति, अजीवा सूइज्जंति, जीवाजीवा सूइज्जति, लोगे सूइज्जति, अलोगे सुइज्जति, लोगालोगे सूइज्जति / समवायाङ्ग क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ? समवायाङ्ग में स्वसमय सूचित किये जाते हैं, पर-समय सूचित किये जाते हैं, और स्वसमयपर-समय सूचित किये जाते हैं। जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं, और जीवअजीव सूचित किये जाते हैं / लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोकअलोक सूचित किया जाता है। ५२३–समवाएणं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरियपरिवुड्ढीए दुवालसंगस्स वि गणिपडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ, ठाणगसयस्स बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समोयारे आहिज्जति / तत्थ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वणिया, वित्थरेण अवरे वि य बहुविहा विसेसा नरम-तिरिय-मणुअ-सुरगणाणं पाहारुस्सास-लेसा-आवास-संख-आययप्पमाण-उववायचवण-उम्गहणोवहि-वेयणविहाण-उपओग-जोग-इंदिय-कसाया विविहा य जीवजोणी विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं विहिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं कुलगर-तित्थगर-गणहराणं सम्मत्त-भरहाहिवाण चक्कोणं चेव चक्कहर-हलहराण य वासाण य निगमा य समाए एए अण्णे य एवमाइ एस्थ वित्थरेणं अस्था समाहिज्जति / समवायाङ्ग के द्वारा एक, दो, तीन को प्रादि लेकर एक-एक स्थान की परिवद्धि करते हुए शत, सहस्र और कोटाकोटी तक के कितने ही पदार्थों का और द्वादशाङ्ग गणिपिटक के पल्लवानों (पर्यायों के प्रमाण) का कथन किया जाता है। सौ तक के स्थानों का, तथा बारह अंगरूप में विस्तार को प्राप्त, जगत् के जीवों के हितकारक भगवान् श्रुतज्ञान का संक्षेप से समवतार किया जाता है / इस समवायाङ्ग में नाना प्रकार के भेद-प्रभेद वाले जीव और अजीव पदार्थ वर्णित हैं। तथा विस्तार से अन्य भी बहुत प्रकार के विशेष तत्वों का नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गणों के हार, उच्छवास. लेश्या. प्रावास-संख्या. उनके आयाम-विष्कम्भ का प्रमाण उपपात (जन्म) च्यवन (मरण) अवगाहना, उपधि, वेदना, विधान (भेद), उपयोग, योग, इन्द्रिय, कषाय, नाना प्रकार की जीव-योनियाँ, पर्वत-कूट ग्रादि के विष्कम्भ (चौड़ाई) उत्सेध (ऊंचाई) परिरय (परिधि) के प्रमाण, मन्दर आदि महीधरों (पर्वतों) के विधि-(भेद) विशेष, कुलकरों, तीर्थंकरों, गणधरों, समस्त भरतक्षेत्र के स्वामी चक्रवर्तियों का, चक्रधर-वासुदेवों और हलधरों (बलदेवों) का, क्षेत्रों का, निर्गमों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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