________________ 144] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन-जैनशास्त्रों के अनुसार संख्या के शत (सी) सहस्र (हजार) शतसहस्र (लाख) आदि से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक जो संख्या-स्थान होते हैं, उनमें जहाँ से प्रथम बार चौरासी से गुणाकार प्रारम्भ होता है, उसे स्वस्थान और उससे आगे के स्थान को स्थानान्तर कहा गया है। जैसे-चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता है। यह स्वस्थान है और इसे चौरासी लाख से गुणाकार करने पर जो पूर्व नाम का दूसरा स्थान होता है, वह स्थानान्तर है। इसी प्रकार आगे पूर्व की संख्या को चौरासी लाख से गुणा करने पर श्रुटिताङ्ग नाम का जो स्थान प्राप्त होता है, वह स्वस्थान है और उसे चौरासी लाख से गुणा करने पर त्रुटित नाम का जो स्थान प्राता है, वह स्थानान्तर है। इस प्रकार पूर्व से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक चौदह स्वस्थान और चौदह ही स्थानान्तर चौरासीचौरासी लाख के गुणाकारवाले जानना चाहिए। ३९८--उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स चउरासीइंगणा चउरासीइंगणहराहोत्था। उसभस्स गं अरहओ कोसलियस्स चउरासोई समणसाहस्सीमो होत्था / ऋषभ अर्हत् के संघ में चौरासी गण, चौरासी गणधर और चौरासी हजार श्रमण (साधु) थे। ३९९-सव्वे वि चउरासोइं विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउइं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खायं / सभी वैमानिक देवों के विमानावास चौरासी लाख, सत्तानवे हजार और तेईस विमान होते हैं, ऐसा भगवान् ने कहा है। // चतुरशीतिस्थानक समवाय समाप्त // पञ्चाशीतिस्थानक समवाय ४००-प्रायारस्स णं भगवओ सचूलियागस्स पंचासीइं उद्देसणकाला पण्णत्ता। चूलिका सहित भगवद् प्राचाराङ्ग सूत्र के पचासी उद्देशन काल कहे गये हैं। विवेचन–प्राचाराङ्ग के दो श्रुतस्कन्ध हैं। उनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में सात, दूसरे में छह, तीसरे में चार, चौथे में चार, पाँचवें में छह, छठे में पाँच, सातवें में आठ, आठवें में चार और नवें अध्ययन में सात उद्देश हैं। दूसरे श्रुतस्कन्ध में चूलिका नामक पाँच अधिकार हैं, उनमें पांचवीं निशीथ नाम की चलिका प्रायश्चित्त रूप है, अतः उसका यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है। सात अध्ययनों में से प्रथम में शेष चार चूलिकानों में से प्रथम चूलिका में सात अध्ययन हैं, उनमें क्रम स ग्यारह, तीन, तीन, दो, दो, दो, और दो उद्देश हैं। दूसरी चूलिका में सात उद्देश हैं। तीसरी और चौथी चूलिका में एक-एक उद्देश है। इन सब का योग (7-6+4+4+6+5+8+4++ 11+3+-3-+2+2+2+2-7-1+1=85) पचासी होता है। एक उद्देश का पठन-पाठनकाल एक ही माना गया है और एक पठन-पाठन-काल को एक उद्देशन-काल कहा जाता है / इस प्रकार चूलिका सहित प्राचाराङ्गसूत्र के पचासी उद्देशन-काल कहे गये हैं / ४०१-धायइसण्डस्स णं मंदरा पंचासोई जोयणसहस्साई सन्नग्गेणं पण्णत्ता। रुयए णं मंडलियपव्वए पंचासीइं जोयणसहस्साई सव्वग्गेणं पण्णत्ते / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org