Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 286
________________ अनेकोतरिका-वृद्धि-समवाय ] [ 165 ४७७-समणस्स णं भगवो महावीरस्स अट्ठसया अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं गइकल्लाणाणं ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं उक्कोसिआ अणुत्तरोववाइयसंपया होत्था / श्रमण भगवान महावीर के कल्याणमय गति और स्थिति वाले तथा भविष्य में मुक्ति प्राप्त करने वाले अनुत्तरोपपातिक मुनियों की उत्कृष्ट सम्पदा आठ सौ थी। ४७८-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अहिं जोयणसहि सूरिए चारं चरति / इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से पाठ सौ योजन की ऊंचाई पर सूर्य परिभ्रमण करता है। ___४७९-अरहओ णं रिट्ठनेमिस्स अट्ठसयाई वाईणं सदेवमणुयासुरंमि लोगमि वाए अपराजिआणं उक्कोसिया वाईसंपया होत्था / 500 / अरिष्टनेमि अर्हत् के अपराजित वादियों की उत्कृष्ट वादिसम्पदा आठ सौ थी, जो देव, मनुष्य और असुरों में से किसी से भी वाद में पराजित होने वाले नहीं थे / 480- प्राणय-पाणय-आरण-अच्चुएसु कप्पेसु विमाणा नव-नव जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता / निसढकूडस्स णं उवरिल्लानो सिहरतलाओ णिसढस्स वासहरपब्वयस्स समे धरणितले एस णं नव जोयणसयाई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं णोलवंतकडस्स वि। अानत, प्राणत, पारण और अच्युत इन चार कल्पों में विमान नौ-नौ सौ योजन ऊंचे हैं। निषध कूट के उपरिम शिखरतल से निषध वर्षधर पर्वत का सम धरणीतल नौ सौ योजन अन्तरवाला है। इसी प्रकार नीलवन्त कूट का भी अन्तर जानना चाहिए। विवेचन—समभूमि तल से निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वत चार-चार सौ योजन ऊंचे हैं / और उनके निषध कूट और नीलवन्त कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे हैं / अत: उक्त कूटों के ऊपरी भाग से दोनों ही वर्षधर पर्वतों के समभूमि का सूत्रोक्त नौ-नौ सौ योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। ४८१.-विमलवाहणे णं कुलगरे णं नव धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था / इमोसे णं रयणप्पभाए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ नहिं जोयणसएहि सव्वुवरिमे तारारूवे चारं चरइ। विमलवाहन कुलकर नौ सौ धनुष ऊंचे थे। इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसमरमणीय भूमि भाग से नौ सौ योजन की सबसे ऊपरी ऊंचाई पर तारा-मंडल संचार करता है / ४८२-निसढस्स णं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओ सिहरतलाओ इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमस्स कंडस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं नव जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णते। एवं भीलवंतस्स वि / 900 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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