________________ द्वादशांग गणि-पिटक ५११-दुवालसंगे गणिपिडगे पणत्त / तं जहा-आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विवाहपन्नत्ती गायाधम्मकहाओ उवासगदसाम्रो अंतगडदसामो अणुत्तरोववाइयवसामो पण्हावागरणाई विवागसुए दिट्टिवाए। गणि-पिटक द्वादश अंगस्वरूप कहा गया है। वे अंग इस प्रकार हैं-१ आचाराङ्ग, 2. सूत्रकृताङ्ग, 3. स्थानाङ्ग, 4. समवायाङ्ग, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6. ज्ञाताधर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृत्दशा, 9. अनुत्तरोपपातिक दशा, 10. प्रश्नव्याकरण, 11. विपाकसूत्र और 12. दृष्टिवाद अंग। विवेचन-गुणों के गण या समूह के धारक आचार्य को गणी कहते हैं। पिटक का अर्थ मंजूषा, पेटी या पिटारी है। प्राचार्यों के सर्वस्वरूप श्रुतरत्नों की मंजूषा को गणि-पिटक कहा है / जैसे मनुष्य के आठ अंग होते हैं, उसी प्रकार श्रुतरूप परमपुरुष के बारह अंग होते हैं, उन्हें ही द्वादशाङ्ग श्रुत कहा जाता है। ५१२--से कि तं पायारे ? अायारे णं समणाणं णिगंथाणं आयार-गोयर-विणय-वेणइय-ठाणगमण-चंकमण-पमाण-जोगज़ जण-भासासमिति-गुत्ती-सेज्जो-वहि--भत्त-पाण--उग्गम--उप्पायण-एसणाविसोहि-सुद्धासुद्धग्गहण-वय-णियम-तवोवहाण-सुप्पसस्थमाहिज्जइ / यह आचाराङ्ग क्या है इसमें क्या वर्णन किया गया है ? आचाराङ्ग में श्रमण निर्ग्रन्थों के प्राचार, गोचरी, विनय, वैनयिक (विनय-फल) स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त, पान, उद्गम, उत्पादन, एषणाविशुद्धि, शुद्ध-ग्रहण, अशुद्ध-ग्रहण, व्रत, नियम और तप उपधान, इन सबका सुप्रशस्त रूप से कथन किया गया है। विवेचन-जो सर्व प्रकार के प्रारम्भ और परिग्रह से रहित होकर निरन्तर श्रुत-अभ्यास और संयम-परिपालन करने में श्रम करते हैं, ऐसे श्रमण-निर्ग्रन्थ साधुओं का प्राचरण कैसा हो, गोचरी कैसी करें, विनय किसका और किस प्रकार करें, कैसे खड़े हों, कैसे गमन करें, कैसे उपाश्रय के भीतर शरीर-श्रम दूर करने के लिए इधर-उधर संचरण करें, उनकी उपधि का क्या प्रमाण हो, स्वाध्याय, प्रतिलेखन आदि में किस प्रकार से अपने को तथा दूसरों को नियुक्त करें, किस प्रकार की भाषा बोलें, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का किस प्रकार से पालन करें, शय्या, उपधि, भोजन, पान आदि की उद्गम और उत्पादन आदि दोषों का परिहार करते हुए किस प्रकार से गवेषणा करें, उसमें लगे दोषों की किस प्रकार से शुद्धि करें, कौन-कौन से व्रतों (मूल गुण) नियमों (उत्तरगुण) और तप उपधान (बारह प्रकार के तप) का किस प्रकार से पालन करें, इन सब कर्तव्यों का आचाराङ्ग में उत्तम प्रकार से वर्णन किया गया है। ५१३-से समासो पंचविहे पण्णते / तं जहा-णाणायारे दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे विरियायारे / प्रायारस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुप्रोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जानो निज्जुत्तीओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org