________________ आचार्य अभयदेव वृत्ति सहित सर्वप्रथम सन् 1880 में रायबहादुर धनपतसिंह जी ने एक संस्करण प्रकाशित किया और उसके पश्चात सन 1919 में आगमोदय समिति सूरत से उसका अभिनव संस्करण प्रकाशित हुया। उसके पश्चात् सन् 1938 में मफतलाल झवेरचन्द ने अहमदाबाद से वृत्ति सहित ही एक संस्करण मुद्रित किया। विक्रम संवत 1995 में जैनधर्म प्रचारक सभा भावनगर से गुजराती अनुवाद सहित संस्करण भी प्रकाशित हुमा है। केवल मूलपाठ के रूप में "सुत्तागमे"७६६ अंगसुत्ताणि,७५° अंगपविट्ठाणि७६८ आदि अन्य अंग-आगमों के साथ यह पागम भी प्रकाशित है। इन संस्करणों के अतिरिक्त स्थानकवासी जैन समाज के प्रबुद्ध आचार्य श्री धर्मसिंह मुनि ने समवायांग पर मूलस्पर्शी शब्दार्थ को स्पष्ट करने वाला टब्वा लिखा था पर वह अभी तक अप्रकाशित है। प्रस्तुत संस्करण इस तरह समय-समय पर समवायांग सूत्र के संस्करण प्रकाशित होते रहे हैं। प्रस्तुत संस्करण के प्रधान सम्पादक हैं—श्रमणसंघ के तेजस्वी युवाचार्य श्रीमधुकर मुनि जी म. I आपके कुशल नेतृत्व में आगम-प्रकाशनसमिति आगमों के शानदार संस्करण प्रकाशित करने में संलग्न है। स्वल्पावधि में अनेक आगम प्रकाशित हो चुके हैं। प्रत्येक आगम के सम्पादक और विवेचक पृथक-पृथक व्यक्ति होने के कारण ग्रन्थमाला में जो एकरूपता आनी चाहिये थी वह नहीं आ सकी है। वह आ भी नहीं सकती है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की स्वतन्त्र लेखन व सम्पादन शैली होती है। तथापि युवाचार्यश्री ने यह महान भगीरथ कार्य उठाया है। श्रमणसंघ के सम्मेलनों में तथा स्थानकवासी कान्स दीर्घकाल से यह प्रयत्न कर रही थी कि आगम-बत्तीसी का अभिनव प्रकाशन हो। मुझे परम आह्लाद है कि मेरे परम श्रद्धेय सद्गुरुवयं राजस्थानकेशरी अध्यात्मयोगी उपाध्यायप्रवर श्री पुष्करमुनि जी म. के सहपाठी व स्नेही सहयोगी युवाचार्यप्रवर ने दत्तचित्त होकर इस कार्य को अतिशीत्र रूप से सम्पन्न करने का दृढ़ संकल्प किया है। यह गौरव की बात है। हम सभी का कर्तव्य है कि उन्हें पूर्ण सहयोग देकर इस कार्य को अधिकाधिक मौलिक रूप में प्रतिष्ठित करें। समवायांग के सम्पादक व विवेचक पण्डितप्रवर श्री हीरालाल जी शास्त्री हैं। पण्डित हीरालाल जी शास्त्री दिगम्बर जैन परम्परा के जाने-माने प्रतिष्ठित साहित्यकार थे। उन्होंने अनेक दिगम्बर-ग्रन्थों का सम्पादन कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था / जीवन की साध्यवेला में उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा के महनीय आगम स्थानांग और समवायांग का सम्पादन किया। स्थानांग इसी आगममाला से पूर्व प्रकाशित हो चुका है। अब उनके द्वारा सम्पादित समवायांग सूत्र प्रकाशित हो रहा है। वृद्धावस्था के कारण जितना चाहिये, उतना श्रम वे नहीं कर सके हैं। तथा कहीं-कहीं परम्पराभेद होने के कारण विषय को पूर्ण स्पष्ट भी नहीं कर सके हैं। मैंने अपनी प्रस्तावना में उन सभी विषयों की पूर्ति करने का प्रयास किया है / तथापि मूलस्पर्शी भावानुवाद और जो यथास्थान संक्षिप्त विवेचन दिया है, वह उन के पाण्डित्य का स्पष्ट परिचायक है। सम्पादनकलामर्मज्ञ कलमकलाधर पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, जो श्वेताम्बर आगमों के तलस्पर्शी 766. धर्मोपदेष्टा फलचन्द जी म. सम्पादित, गुडगांव-पंजाब 767. मुनि श्री नथमल जी सम्पादित, जैन विश्वभारती, लाडनं 765. जैन संस्कृति रक्षक संघ-सैलाना (मध्यप्रदेश) [ 109 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org