________________ एकादशस्थानक समवाय] [29 ७०.-लंतए कप्ये देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं नंदिघोस सुसरं मणोरमं रम्मं रम्मगं रमणिज्ज मंगलावतं बंभलोगडिसगं विमाण देवत्ताए उववण्णा तेसि गं देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं आणमंति बा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा, तेसि णं देवाणं दसहिं वाससहस्सेहि आहार? समुप्पज्जइ। __ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिसंति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / __ लान्तककल्प में कितने क देवों की जघन्य स्थिति दश सागरोपम कही गई है। वहां जो देव घोष, सुघोष, महाघोष, नन्दिघोष, सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक, रमणीय, मगलावर्त और ब्रह्मलोकावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम कही गई है। वे देव दश अर्धमासों (पांच मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं, उन देवों के दश हजार वर्षों के बाद प्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो दश भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // दशस्थानक समवाय समाप्त / / एकादश स्थानक-समवाय ७१-एक्कारस उवासगपडिमाओ पण्णत्तानो, तं जहा-दसणसावए 1, कयव्वयकम्मे 2, सामाइयकडे 3, पोसहोववासनिरए 4, दिया बंभयारी रत्ति परिमाणकडे 5, दिआ वि राओवि बंभयारी असिणाई वियडभोजी मोलिकडे 6, सचित्तपरिणाए 7, आरंभपरिणाए 8, पेसपरिणाए 9, उद्दिट्ठभत्तपरिणाए 10, समणभूए 11, आवि भवइ समणाउसो! हे आयुष्मान् श्रमणा ! उपासकों श्रावकों को ग्यारह प्रतिमाएं कही गई हैं। जैसे-दर्शन श्रावक 1, कृतव्रतकर्मा 2, सामायिककृत 3, पौषधोपवास-निरत 4, दिवा ब्रह्मचारी, रात्रि-परिमाणकृत 5, दिवा ब्रह्मचारी भी, रात्रि-ब्रह्मचारी भी, अस्नायो, विकट-भोजी और मौलिकृत 6, सचित्तपरिज्ञात 7, प्रारम्भपरिज्ञात 8. प्रेष्य-परिज्ञात 9, उद्दिष्टपरिज्ञात 10, और श्रमणभूत 11 / विवेचन--जो श्रमणों-साधुजनों-की उपासना करते हैं, उन्हें श्रमणोपासक या उपासक कहते हैं। उनके अभिग्रहरूप विशेष अनुष्ठान या प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहा जाता है। उपासक या श्रावक की ग्यारह प्रतिमानों का स्वरूप इस प्रकार है-- 1. दर्शनप्रतिमा-- में उपासक को शंकादि दोषों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करना आवश्यक है, क्योंकि यह सर्व धर्मों का मूल है, इसके होने पर ही व्रतादि का परिपालन हो सकता है, अन्यथा नहीं। ___ यहां यह ज्ञातव्य है कि उत्तर-उत्तर प्रतिमाधारियों को पूर्व-पूर्व प्रतिमानों के प्राचार का परिपालन करना आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org