________________ द्वादशस्थानक समवाय] [33 वाली, रोगिणी आदि स्त्रियों के हाथ से भक्त-पान को ग्रहण नहीं करता। वह दिन के प्रथम भाग में ही गोचरी को निकलता है और पेडा-अर्धपेडा आदि गोचर-चर्या करके वापिस आ जाता है। वह कहीं भी एक या दो रात से अधिक नहीं रहता। विहार करते हुए जहां भी सूर्य अस्त हो जाता है, वहीं किसी वृक्ष के नीचे, या उद्यान-गृह में या दुर्ग में या पर्वत पर, सम या विषम भूमि पर, पर्वत की गुफा या उपत्यका आदि जो भी समीप उपलब्ध हो, वहीं ठहर कर रात्रि व्यतीत करता है। मार्ग में चलते हए पैर में कांटा लग जाय या आंख में किरकिरी चली जाय, या शरीर में कोई अस्त्र-वाण आदि प्रवेश कर जाय, तो वह अपने हाथ से नहीं निकालता है। वह रात्रि में गहरी नींद नहीं सोता है, किन्तु बैठे-बैठे ही निद्रा-प्रचला द्वारा अल्पकालिक झपाई लेते हुए और आत्म-चिन्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करता है और प्रातःकाल होते ही आगे चल देता है। वह ठंडे या गर्म जल से अपने हाथ पैर मुख, दांत अांख आदि शरीर के अंगों को नहीं धोता है, विहार करते हुए यदि सामने से कोई शेर, चीता, व्याघ्र प्रादि हिंसक प्राणी, या हाथी, घोड़ा, भैंसा आदि कोई उन्मत्त प्राणी पा जाता है तो वह एक पैर भी पोछे नहीं हटता, किन्तु वहीं खड़ा रह जाता है। जब वे प्राणी निकल जाते हैं, तब आगे विहार करता है। वह जहां बैठा हो वहां यदि तेज धूप आ जाय तो उठकर शीतल छाया वाले स्थान में नहीं जाता / इसी प्रकार तेज ठंड वाले स्थान से उठकर गर्म स्थान पर नहीं जाता है / इस प्रकार वह आगमोक्त मर्यादा से अपनी प्रतिमा का पालन करता है। दूसरी से लेकर सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा तक के धारी साधुत्रों को भी पहली मासिकी प्रतिमाधारी के सभी कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है / अन्तर यह है कि दूसरी भिक्षुप्रतिमा वाला दो मास तक प्रतिदिन भक्त-पान की दो-दो दत्तियां ग्रहण करता है। इसी प्रकार एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए सप्तमासिको भिक्षुप्रतिमा बाला सात मास तक भक्त-पान की सात-सात दत्तियों को ग्रहण करता है। प्रथम सप्तरात्रिदिवा भिक्षुप्रतिमावाला साधु चतुर्थ भक्त का नियम लेकर ग्राम के बाहर खड़े या बैठे हुए ही समय व्यतीत करता है / दूसरी सप्तरात्रिदिवा भिक्षुप्रतिमावाला षष्ठभक्त का नियम लेकर उत्कुट (उकडू) आदि प्रासन से अवस्थित रहता है। तीसरी सप्तरात्रिक प्रतिमावाला अष्टम-भक्त का नियम लेकर सात दिन-रात तक गोदोहन या वीरासनादि से अवस्थित रहता है। अहोरात्रिक प्रतिमा वाला अपानक षष्ठ भक्त का नियम लेकर 24 घंटे कायोत्सर्ग से ग्रामादि के बाहर अवस्थित रहता है। एकरात्रिक भिक्ष प्रतिमावाला अपानक अष्टम भक्त का नियम लेकर अनिमिष नेत्रों से प्रतिमायोग धारण कर कायोत्सर्ग से अवस्थित रहता है। ७८–दुवालसविहे सम्भोगे पण्णत्ते, तं जहा उवही सुन भत्त पाणे अंजली पग्गहे ति य / दायणे य निकाए अ अन्भुट्ठाणे ति आवरे // 1 // किइकम्मस्स य करणे यावच्चकरणे इ / समोसरणं संनिसिज्जा य कहाए अपबंधणे // 2 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org