________________ 94] सिमवायाङ्गसूत्र 2. निरपलाप- --शिष्य-कथित दोषों को आचार्य किसी के प्रागे न कहे। 3. आपत्सु दृढधर्मता-- आपत्तियों के आने पर साधक अपने धर्म में दृढ रहे। 4. अनिश्रितोपधान--दूसरे के प्राश्रय की अपेक्षा न करके तपश्चरण करे। 5. शिक्षा-सूत्र और अर्थ का पठन-पाठन एवं अभ्यास करे। निष्प्रतिकर्मता-शरीर की सजावट-शृगारादि न करे। 7. अज्ञातता-यश, ख्याति, पूजादि के लिए अपने तप को प्रकट न करे, अज्ञात रखे / 8. अलोभता-भक्त-पान एवं वस्त्र, पात्र आदि में निर्लोभ प्रवृत्ति रखे। 9. तितिक्षा---भूख, प्यास प्रादि परीषहों को सहन करे।। 10. प्रार्जव-अपने व्यवहार को निश्छल और सरल रखे। 11. शुचि-सत्य बोलने और संयम-पालने में शुद्धि रखे। 12. सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन को शंका-कांक्षादि दोषों को दूर करते हुए शुद्ध रखे। 13. समाधि-चित्त को सकल्प-विकल्पों से राहत शान्त रखे / 14. आचारोपगत-अपने आचरण को मायाचार रहित रखे। 15. विनयोपगत-विनय-युक्त रहे, अभिमान न करे / 16. धृतिमति-अपनी बुद्धि में धैर्य रखे, दीनता न करे। 17. संवेग-संसार से भयभीत रहे और निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा रखे / 18. प्रणिधि हृदय में माया शल्य न रखे। 19. सुविधि-अपने चारित्र का विधि-पूर्वक सत्-अनुष्ठान अर्थात् सम्यक परिपालन करे। 20. संवर-कर्मों के आने के द्वारों (कारणों) का संवरण अर्थात् निरोध करे। 21. आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का निरोध करे--दोष न लगने दे। 22. सर्वकामविरक्तता-सर्व विषयों से विरक्त रहे। 23. मूलगुण-प्रत्याख्यान-अहिंसादि मूल गुण-विषयक प्रत्याख्यान करे। 24. उत्तर-गुण-प्रत्याख्यान-इन्द्रिय-निरोध प्रादि उत्तर गुण-विषयक प्रत्याख्यान करे / 25. व्युत्सर्ग-वस्त्र-पात्र आदि बाहरी उपधि और मूर्छा आदि आध्यन्तर उपधि का परित्याग करे। 26. अप्रमाद-अपने देवसिक और रात्रिक आवश्यकों के पालन आदि में प्रमाद न करे। 27. लवालव-प्रतिक्षण अपनी सामाचारी के परिपालन में सावधान रहे। 28. ध्यान-संवरयोग-धर्म और शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए प्रास्रव-द्वारों का संवर करे। 29. मारणान्तिक कर्मोदय के होने पर भी क्षोभ न करे, मनमें शान्ति रखे / 30. संग-परिज्ञा–संग (परिग्रह) की परिज्ञा करे अर्थात् उसके स्वरूप को जान कर त्याग करे। 31. प्रायश्चित्तकरण-अपने दोषों की शुद्धि के लिए नित्य प्रायश्चित्त करे। 32. मारणान्तिक-आराधना-मरने के समय संलेखना-पूर्वक ज्ञान-दर्शन, चारित्र और तप की विशिष्ट आराधना करे / २१०-बत्तीसं देविदा पण्णता / तं जहा-चमरे बली धरणे भूप्राणदे जाव घोसे महाघोसे, चंदे सूरे सक्के ईसाणे सणंकुमारे जाव पाणए अच्चुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org